श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । अर्थ- इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राणशक्ति) और धृति- इन विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है। व्याख्या- ‘इच्छा’- अमुक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि मिले- ऐसी जो मन में चाहना रहती है, उसको इच्छा कहते हैं। क्षेत्र के विकारों में भगवान सबसे पहले इच्छारूप विकार का नाम लेते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इच्छा मूल विकार है; क्योंकि ऐसा कोई पाप और दुःख नहीं है, जो सांसारिक इच्छाओं से पैदा न होता हो अर्थात संपूर्ण पाप और दुःख सांसारिक इच्छाओं से ही पैदा होते हैं। ‘द्वेषः’- कामना और अभिमान में बाधा लगने पर क्रोध पैदा होता है। अंतःकरण में उस क्रोध का जो सूक्ष्म रूप रहता है, उसको ‘द्वेष’ कहते हैं। यहाँ ‘द्वेषः’ पद के अंतर्गत क्रोध को भी समझ लेना चाहिए। ‘सुखम्’- अनुकूलता के आने पर मन में जो प्रसन्नता होती है अर्थात अनुकूल परिस्थिति जो मन को सुहाती है, उसको ‘सुख’ कहते हैं। ‘दुःखम्’- प्रतिकूलता के आने पर मन में जो हलचल होती है अर्थात परिस्थिति जो मन को सुहाती नहीं है, उसको ‘दुःख’ कहते हैं। ‘संघातः’- चौबीस तत्त्वों से बने हुए शरीर रूप समूह का नाम ‘संघात’ है। शरीर का उत्पन्न होकर सत्ता रूप से दिखना भी विकार है तथा उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहना भी विकार हैं। ‘चेतना’- चेतना नाम प्राण शक्ति का है अर्थात शरीर में प्राण चल रहे हैं, उसका नाम ‘चेतना’ है। इस चेतना में परिवर्तन होता रहता है; जैसे- सात्त्विक-वृत्ति आने पर प्राणशक्ति शांत रहती है और चिन्ता, शोक, भय, उद्वेग आदि होने पर प्राणशक्ति वैसी शान्त नहीं रहती, क्षुब्ध हो जाती है। यह प्राण शक्ति निरंतर नष्ट होती रहती है। अतः यह भी विकार रूप ही है। साधारण लोग प्राण वालों को चेतन और निष्प्राण वालों को अचेतन कहते हैं, इस दृष्टि से यहाँ प्राणशक्ति को ‘चेतना’ कहा गया है। ‘धृतिः’- धृति नाम धारण शक्ति का है। यह धृति भी बदलती रहती है। मनुष्य कभी धैर्य को धारण करता है और कभी (प्रतिकूल परिस्थिति आने पर) धैर्य को छोड़ देता है। कभी धैर्य ज्यादा रहता है और कभी धैर्य कम रहता है। मनुष्य कभी अच्छी बात को धारण करता है और कभी विपरीत बात को धारण करता है। अतः धृति भी क्षेत्र का विकार है। [अठारहवें अध्याय के तैंतीसवें से पैंतीसवें श्लोक तक धृति के सात्त्विक की, राजसी और तामसी- इन तीन भेदों का वर्णन किया गया है। परमात्मा की तरफ चलने में सात्त्विक की धृति की बड़ी आवश्यकता है।] ‘एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्’- जैसे पहले श्लोक में ‘इदं शरीरम्’ कहकर व्यष्टि शरीर से अपने को अलग देखने के लिए कहा, ऐसे ही दृश्य (क्षेत्र और उसमें होने वाले विकार) से द्रष्टा को अलग दिखाने के लिए यहाँ ‘एतत्’ पद आया है। |
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