श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।3।।
अर्थ- वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है और जिससे जो पैदा हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से सुन।
व्याख्या- ‘तत्क्षेत्रम्’- ‘तत्’ शब्द दो का वाचक होता है- पहले कहे हुए विषय का और दूरी का। इसी अध्याय के पहले श्लोक में जिसको ‘इदम्’ पद से कहा गया है, उसी को यहाँ ‘तत्’ पद से कहा है। क्षेत्र सब देश में नहीं है, सब काल में नहीं है और अभी भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है- यह क्षेत्र की (स्वयं से) दूरी है।
‘यच्च’- उस क्षेत्र का जो स्वरूप है, जिसका वर्णन इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में हुआ है।
‘यादृक च’- उस क्षेत्र का जैसा स्वभाव है, जिसका वर्णन इसी अध्याय के छब्बीसवें-सत्ताईसवें श्लोकों में उसे उत्पन्न और नष्ट होने वाला बताकर किया गया है।
‘यद्विकारि’- यद्यपि प्रकृति का कार्य होने से इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में आये तेईस तत्त्वों को भी विकार कहा गया है, तथापि यहाँ उपर्युक्त पद से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के माने हुए संबंध के कारण क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले इच्छा-द्वेषादि विकारों को ही विकार कहा गया है, जिनका वर्णन छठे श्लोक में हुआ है।
‘यतश्च यत्’- यह क्षेत्र जिससे पैदा होता है अर्थात प्रकृति से उत्पन्न होने वाला सात विकार और तीन गुण, जिनका वर्णन इसी अध्याय के उन्नीसवें श्लोक के उत्तरार्ध में हुआ है।
‘स च’- पहले श्लोक के उत्तरार्ध में जिस क्षेत्रज्ञ का वर्णन हुआ है, उसी क्षेत्रज्ञ का वाचक यहाँ ‘सः’ पद है और उसी के विषय में यहाँ सुनने के लिए कहा जा रहा है।
‘यः’- इस क्षेत्रज्ञ का जो स्वरूप है, जिसका वर्णन इसी अध्याय के बीसवें श्लोक के उत्तरार्ध में और बाईसवें श्लोक में किया गया है।
‘यत्प्रभावश्च’- वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाव वाला है; जिसका वर्णन इसी अध्याय के इकतालीसवें से तैंतीसवें श्लोक तक किया गया है।
‘तत्समासेन मे श्रृणु’- यहाँ ‘तत्’ पद के अंतर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ- दोनों को लेना चाहिए। तात्पर्य है कि वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला और जिससे पैदा हुआ है- इस तरह क्षेत्र के विषय में चार बातें; और वह क्षेत्रज्ञ जो है और जिस प्रभाव वाला है- इस तरह क्षेत्रज्ञ के विषय में दो बातें तू मेरे से संक्षेप में सुन। यद्यपि इस अध्याय के आरंभ में पहले दो श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का सूत्ररूप से वर्णन हुआ है, जिसको भगवान ने ‘ज्ञान’ भी कहा है तथापि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग के स्पष्ट रूप से विवेचन (विकार सहित क्षेत्र और निर्विकार क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का प्रभावसहित विवेचन) इस तीसरे श्लोक से आरंभ किया गया है। इसलिए भगवान इसको सावधान होकर सुनने की आज्ञा देते हैं।
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