श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
‘इदम्’ का अर्थ है- ‘यह’ अर्थात अपने से अलग दिखने वाला। सबसे पहले देखने में आता है- पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश से बना यह स्थूल शरीर। यह दृश्य है और परिवर्तनशील है। इसको देखने वाले हैं- नेत्र। जैसे दृश्य में रंग, आकृति, अवस्था, उपयोग आदि सभी बदलते रहते हैं, पर उनको देखने वाले नेत्र एक ही रहते हैं, ऐसे ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधरूप विषय भी बदलते रहते हैं, पर उनको जानने वाले कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका एक ही रहते हैं। जैसे नेत्रों से ठीक दिखना, कम दिखना और बिलकुल न दिखना- ये नेत्र में होने वाले परिवर्तन मन के द्वारा जाने जाते हैं, ऐसे ही कान, त्वचा, जिह्वा और नासिका में होने वाले परिवर्तन भी मन के द्वारा जाने जाते हैं। अतः पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ (कान, त्वचा, नेत्र जिह्वा और नासिका) भी दृश्य हैं। कभी क्षुब्ध और कभी शान्त, कभी स्थिर और कभी चंचल- ये मन में होने वाले परिवर्तन बुद्धि के द्वारा जाने जाते हैं। अतः मन भी दृश्य है। कभी ठीक समझना, कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना- ये बुद्धि में होने वाले परिवर्तन स्वयं (जीवात्मा) के द्वारा जाने जाते हैं। अतः बुद्धि भी दृश्य है। बुद्धि आदि के द्रष्टा स्वयं (जीवात्मा) में कभी परिवर्तन हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और होना संभव भी नहीं। वह सदा एकरस रहता है; अतः वह कभी किसी का दृश्य नहीं हो सकता[1] इंद्रियाँ अपने-अपने विषय को तो जान सकती है, पर विषय अपने से पर (सूक्ष्म, श्रेष्ठ और प्रकाशक) इंद्रियों को नहीं जान सकते। इसी तरह इंद्रियाँ और विषय मन को नहीं जान सकते; तथा बुद्धि, मन, इंद्रियाँ और विषय स्वयं को नहीं जान सकते। न जानने में मुख्य कारण यह है कि इंद्रियाँ, मन और बुद्धि तो सापेक्ष द्रष्टा हैं अर्थात एक दूसरे की सहायता से केवल अपने से स्थूल रूप को देखने वाले हैं; किंतु स्वयं (जीवात्मा) शरीर, इंद्रियां, मन और बुद्धि से अत्यंत सूक्ष्म और श्रेष्ठ होने के कारण निरपेक्ष द्रष्टा है अर्थात दूसरे किसी की सहायता के बिना खुद ही देखने वाला है। उपर्युक्त विवेचन में यद्यपि इंद्रियाँ, मन और बुद्धि को भी द्रष्टा कहा गया है, तथापि वहाँ भी यह समझ लेना चाहिए कि स्वयं (जीवात्मा) के साथ रहने पर ही इनके द्वारा देखा जाना संभव होता है। कारण कि मन, बुद्धि आदि जड प्रकृति का कार्य होने से स्वतंत्र द्रष्टा नहीं हो सकती। अतः स्वयं ही वास्तविक द्रष्टा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक् तु मानसम्। दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते ।। (दृग्दृश्यविवेक 2)
‘सर्वप्रथम नेत्र द्रष्टा हैं और रूप दृश्य है। फिर मन द्रष्टा है और नेत्रादि इंद्रियाँ दृश्य है। फिर बुद्धि द्रष्टा है और मन दृश्य है। अंत में बुद्धि की वृत्तियों का भी जो द्रष्टा है, वह साक्षी (स्वयं प्रकाश आत्मा) किसी का भी दृश्य नहीं है।’
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