श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
जितने सद्गुण, सदाचार, सद्भाव आदि हैं, वे सब के सब ‘सत्’ (परमात्मा) के संबंध से ही होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण, दुराचार, दुर्भाव से दुराचारी पुरुष में भी सद्गुण-सदाचार का सर्वथा अभाव नहीं होता; क्योंकि ‘सत्’ (परमात्मा) का अंश होने के कारण जीव मात्र का ‘सत्’ से नित्यसिद्ध संबंध है। परमात्मा से संबंध रहने के कारण किसी न किसी अंश में उसमें सद्गुण-सदाचार रहेंगे ही। परमात्मा की प्राप्ति होने पर असत् से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है और दुर्गुण, दुराचार, दुर्भाव आदि सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। सद्गुण-सदाचार-सद्भाव भगवान की संपत्ति है। इसलिए साधक जितना ही भगवान के सम्मुख अथवा भगवत्परायण होता जाएगा, उतने ही अंश में स्वतः सद्गुण-सदाचार-सद्भाव प्रकट होते जाएंगे और दुर्गुण-दुराचार-दुर्भाव नष्ट होते जाएंगे। राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोध, आदि अंतःकरण के विकार हैं, धर्म नहीं।[1] धर्मी के साथ धर्म का नित्य-संबंध रहता है। जैसे, सूर्यरूप धर्मी के साथ उष्णतारूप धर्म का नित्य-संबंध रहता है, जो कभी मिट नहीं सकता। अतः धर्मी के बिना धर्म तथा धर्म के बिना धर्मी नहीं रह सकता। काम-क्रोधादि विकार साधारण मनुष्य में भी हर समय नहीं रहते, साधन करने वाले में कम होते रहते हैं और सिद्ध पुरुष में तो सर्वथा ही नहीं रहते। यदि ये विकार अंतःकरण (धर्मी) के रहते हुए कभी नष्ट नहीं होते। अतः ये अंतःकरण के धर्म नहीं, प्रत्युत आगन्तुक (आने-जाने वाले) विकार हैं। साधक जैसे-जैसे अपने एकमात्र लक्ष्य भगवान की ओर बढ़ता है, वैसे ही वैसे राग द्वेषादि विकार मिटते जाते हैं और भगवान को प्राप्त होने पर उन विकारों का अत्यंताभाव हो जाता है। गीता में जगह-जगह भगवान ने ‘तयोर्न वशमागच्छेत्’[2], ‘रागद्वेषवियुक्तैः’[3], ‘रागद्वेषौ व्युदस्य’[4] आदि पदों से साधकों को इन राग-द्वेषादि विकारों का सर्वथा त्याग करने के लिए कहा है। यदि ये (राग द्वेषादि) अंतःकरण के धर्म होते तो अंतःकरण के रहते हुए इनका त्याग असंभव होता और असंभव को संभव बनाने के लिए भगवान आज्ञा भी कैसे दे सकते थे? गीता में सिद्ध महापुरुषों को राग-द्वेषादि विकारों से सर्वथा मुक्त बताया गया है। जैसे, इसी अध्याय के तेरहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक जगह-जगह भगवान ने सिद्ध भक्तों को राग-द्वेषादि विकारों से सर्वथा मुक्त बताया है। इसलिए भी ये विकार ही सिद्ध होते हैं, अंतःकरण के धर्म नहीं। असत् से सर्वथा विमुख होने से उन सिद्ध महापुरुषों में विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। यदि अंतःकरण में विकार बने रहते, तो फिर वे मुक्त किससे होते? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज