श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘धर्म्यामृतमिदं यथोक्तम्’- सिद्ध भक्तों के उनतालीस लक्षणों के पाँचों प्रकरण धर्ममय अर्थात धर्म से ओतप्रोत हैं। उनमें किञ्चिन्मात्र भी अधर्म का अंश नहीं है। जिस साधन में साधन-विरोधी अंश सर्वथा नहीं होता, वह साधन अमृत तुल्य होता है। पहले कहे हुए लक्षण समुदाय के धर्ममय होने से तथा उसमें साधन-विरोधी कोई बात न होने से ही उसे ‘धर्म्यामृत’ संज्ञा दी गयी है। साधन में साधन-विरोधी कोई बात न होते हुए भी जैसा पहले गया है, ठीक वैसा का वैसा धर्ममय अमृत का सेवन तभी संभव है तब साधन का उद्देश्य किञ्चिन्मात्र भी धन, मान, बड़ाई, आदर, सत्कार, संग्रह, सुखभोग आदि न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। प्रत्येक प्रकरण के सब लक्षण धर्म्यामृत हैं। अतः साधक जिस प्रकरण के लक्षणों को आदर्श मानकर साधन करता है, उसके लिए वही धर्म्यामृत है। धर्म्यामृत को जो ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः ......’ आदि लक्षण बताये गए हैं, वे आंशिक रूप से साधक मात्र में रहते हैं और इनके साथ-साथ कुछ दुर्गुण-दुराचार भी रहते हैं। प्रत्येक प्राणी में गुण और अवगुण दोनों ही रहते हैं, फिर भी अवगुणों का तो सर्वथा त्याग हो सकता है, पर गुणों का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। कारण कि साधन और स्वभाव के अनुसार सिद्ध पुरुष में गुणों का तारतम्य तो रहता है; परंतु उनमें गुणों की कमीरूप अवगुण किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। गुणों में न्यूनाधिकता रहने से उनके पाँच विभाग किए गए हैं; परंतु अवगुण सर्वथा त्याज्य हैं; अतः उनका विभाग हो ही नहीं सकता। साधक सत्संग तो करता है, पर साथ ही साथ कुसंग भी होता रहता है। वह संयम तो करता है, पर साथ-ही-साथ असंयम भी होता रहता है। वह साधन तो करता है, पर साथ ही साथ असाधन भी होता रहता है। जब तक साधन के साथ असाधन अथवा गुणों के साथ अवगुण रहते हैं, तब तक साधक की साधना पूर्ण नहीं होती। कारण कि असाधन के साथ साधन अथवा अवगुणों के साथ गुण उनमें भी पाए जाते हैं, जो साधक नहीं है। इसके सिवाय जब तक साधन के साथ असाधन अथवा गुणों के साथ अवगुण रहते हैं तब तक साधक में अपने साधन अथवा गुणों का अभिमान रहता है, जो आसुरी संपत्ति का आधार है। इसलिए धर्म्यामृत का यथोक्त सेवन करने के लिए कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इसका ठीक वैसा ही पालन होना चाहिए, जैसा वर्णन किया गया है। |
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