श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘अनिकेतः’- जिनका कोई निकेत अर्थात वास स्थान नहीं है, वे ही ‘अनिकेत’ हों- ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधु-संन्यासी, जिनकी अपने रहने के स्थान में ममता-आसक्ति नहीं है, वे सभी ‘अनिकेत’ हैं। भक्त का रहने के स्थान में और शरीर (स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिए उसको ‘अनिकेतः’ कहा गया है। ‘स्थिरमतिः’- भक्त की बुद्धि में भगवत्तत्त्व की सत्ता और स्वरूप के विषय में संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्व के ज्ञान से कभी किसी अवस्था में विचलित नहीं होती। इसलिए उसको ‘स्थिरमतिः’ कहा गया है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिए उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्र-विचार, स्वाध्याय आदि की जरूरत नहीं रहती; क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से भगवत्तत्त्व में तल्लीन रहता है। स्थिरबुद्धि में होने में कामनाएँ ही बाधक होती हैं।[1] अतः कामनाओं के त्याग से ही स्थिरबुद्धि होना संभव है।[2] अंतःकरण में सांसारिक (संयोगजन्य) सुख की कामना रहने से संसार में आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसार को असत्य या मिथ्या जान लेने पर भी मिटती नहीं; जैसे- सिनेमा में दिखने वाले दृश्य (प्राणी-पदार्थों) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकाल की बातों को याद करते समय मानसिक दृष्टि के सामने आने वाले दृश्य को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जब तक भीतर में सांसारिक सुख की कामना है, तब तक संसार को मिथ्या मानने पर भी संसार की आसक्ति नहीं मिटती। आसक्ति से संसार की स्वतंत्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुख की कामना मिटने पर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटने पर संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्व में बुद्धि स्थिर हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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