श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘तुल्यनिन्दास्तुतिः’- निन्दा स्तुति मुख्यतः नाम की होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभाव के अनुसार भक्त की निन्दा या स्तुत किया करते हैं। भक्त में अपने कहलाने वाले नाम और शरीर में लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिए निंदा-स्तुति का उस पर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्त का न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करने वाले के प्रति राग होता है और न निंदा करने वाले के प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनों में ही समबुद्धि रहती है। साधारण मनुष्यों के भीतर अपनी प्रशंसा की कामना रहा करती है, इसलिए वे अपनी निंदा सुनकर दुःख का और स्तुति सुनकर सुख का अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहने वाले) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं। परंतु नाम में किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होने के कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावों से रहित होता है अर्थात निन्दा-स्तुति में सम होता है। हाँ, वह भी कभी-कभी लोकसंग्रह के लिए साधन की तरह (निन्दा में सावधान तथा स्तुति में लज्जित होने का) व्यवहार कर सकता है। भक्त की सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने के कारण भी उसका निन्दा-स्तुति करने वालों में भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहने से ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दा-स्तुति में सम है। भक्त के द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभ-कर्मों के होने में वह केवल भगवान को हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे, तो उसके चित्त में कोई विकार पैदा नहीं होता। ‘मौनी’- सिद्ध भक्त के द्वारा स्वतः स्वाभाविक भगवत्स्वरूप का मनन होता रहता है, इसलिए उसको ‘मौनी’ अर्थात मननशील कहा गया है। अंतःकरण में आने वाली प्रत्येक वृत्ति में उसको ‘वासुदेवः सर्वम्’[1] ‘सब कुछ भगवान ही है’- यही दिखता है। इसलिए उसके द्वारा निरंतर ही भगवान का मनन होता है। यहाँ ‘मौनी’ पद का अर्थ ‘वाणी का मौन रखने वाला’ नहीं माना जा सकता; क्योंकि ऐसा मानने से वाणी के द्वारा भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेंगे। इसके सिवाय अगर वाणी का मौन रखने मात्र से भक्त होना संभव होता, तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता है और ऐसे भक्त असंख्य बन जाते; किंतु संसार में भक्तों की संख्या अधिक देखने में नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाव वाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणी का मौन रख सकता है। परंतु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध के भक्त के लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिए यहाँ ‘मौनी’ पद का अर्थ ‘भगवत्स्वरूप का मनन करने वाला’ ही मानना युक्तिसंगत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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