श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव । अर्थ- अगर तू अभ्यास (योग) में भी असमर्थ है, तो मेरे लिए कर्म करने के परायण हो जा। मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी तू सिद्धि को प्राप्त हो जाएगा। व्याख्या- ‘अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव’- यहाँ ‘अभ्यासे’ पद का अभिप्राय पीछे के (नवें) श्लोक में वर्णित ‘अभ्यासयोग’ से है। गीता की यह शैली है कि पहले कहे हुए विषय का आगे संक्षेप में वर्णन किया जाता है। आठवें श्लोक में भगवान ने अपने में मन-बुद्धि लगाने के साधन को नवें श्लोक में पुनः ‘चित्तं समाधातुम्’ पदों से कहा अर्थात ‘चित्तम्’ पद के अंतर्गत मन-बुद्धि दोनों का समावेश कर लिया। इसी प्रकार नवें श्लोक में आए हुए अभ्यासयोग के लिए यहाँ (दसवें श्लोक में) ‘अभ्यासे’ पद आया है। भगवान कहते हैं कि अगर तू पूर्वश्लोक में वर्णित अभ्यासयोग में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए ही संपूर्ण कर्म करने के परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि संपूर्ण कर्मों[1] का उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। जो कर्म भगवत्वप्राप्ति के लिए भगवदाज्ञानुसार किए जाते हैं, उनको ‘मत्कर्म’ कहते हैं। जो साधक इस प्रकार कर्मों के परायण हैं, वे ‘मत्कर्मपरम’ कहे जाते हैं। साधक का अपना संबंध भी भगवान से हो और कर्मों का संबंध भी भगवान के साथ रहे, तभी मत्कर्मपरायणता सिद्ध होगी। साधक का ध्येय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा, तब निषिद्ध क्रियाएँ सर्वथा छूट जाएँगी; क्योंकि निषिद्ध क्रियाओं के अनुष्ठान में संसार की ‘कामना’ ही हेतु है।[2] अतः भगवत्प्राप्ति का ही उद्देश्य होने से साधक की संपूर्ण क्रियाएँ शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी। ‘मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि’- भगवान ने जिस साधन की बात इसी श्लोक के पूर्वार्ध में ‘मत्कर्मपरमो भव’ पदों से कही है, वही बात इन पदों में पुनः कही गयी है। भाव यह है कि केवल परमात्मा का उद्देश्य होने से उस साधक की और जगह स्थिति हो ही कैसे सकती है? जिस प्रकार भगवान ने आठवें श्लोक में मन-बुद्धि अपने में अर्पण करने के साधन को तथा नवें श्लोक में अभ्यासयोग के साधन को अपनी प्राप्ति का स्वतंत्र साधन बताया, उसी प्रकार यहाँ भगवान ‘मत्कर्मपरमो भव’ (केवल मेरे लिए कर्म करने के परायण हो)- इस साधन को भी अपनी प्राप्ति का स्वतंत्र साधन बता रहे हैं। जैसे धन-प्राप्ति के लिए व्यापार आदि कर्म करने वाले मनुष्य को ज्यों-ज्यों धन प्राप्त होता है, त्यों-त्यों उसके मन में धन का लोभ और कर्म करने का उत्साह बढ़ता है, ऐसे ही साधक जब भगवान के लिए ही संपूर्ण कर्म करता है, तब उसके मन में भी भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा और साधन करने का उत्साह बढ़ता रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वर्णाश्रम धर्मानुसार शरीर निर्वाह और आजीविका-संबंधी लौकिक एवं भजन, ध्यान, नाम-जप आदि पारमार्थिक कर्मों
- ↑ गीता 3:37
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