श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
सांसारिक सिद्धि-असिद्धि में सम होने पर भगवत्प्राप्ति की इच्छा तीव्र हो जाती है। भगवत्प्राप्ति की तीव्र इच्छा होने पर भगवान से मिलने के लिए व्याकुलता पैदा हो जाती है। यह व्याकुलता उसकी अवशिष्ट सांसारिक आसक्ति एवं अनन्त जन्मों के पापों को जला डालती है। सांसारिक आसक्ति तथा पापों का नाश होने पर उसका एकमात्र भगवान में ही अनन्य प्रेम हो जाता है और वह भगवान के वियोग को सहन नहीं कर पाता। जब भक्त भगवान के बिना नहीं रह सकता, तब भगवान भी उस भक्त के बिना नहीं रह सकते अर्थात भगवान भी उसके वियोग को नहीं सह सकते और उस भक्त को मिल जाते हैं।
साधक को भगवत्प्राप्ति में देरी होने का कारण यही है कि वह भगवान के वियोग को सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान को वियोग असह्य हो जाए, तो भगवान के मिलने में देरी नहीं होगी। भगवान की देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि से दूरी है ही नहीं। जहाँ साधक है, वहाँ भगवान है ही। भक्त में उत्कण्ठा की कमी के कारण ही भगवत्प्राप्ति में देरी होती है। सांसारिक सुखभोग की इच्छा के कारण ही ऐसी आशा कर ली जाती है कि भगवत्प्राप्ति भविष्य में होगी। जब भगवत्प्राप्ति के लिए व्याकुलता और तीव्र उत्कण्ठा होगी, तब सुख-भोग की इच्छा का स्वतः नाश हो जाएगा और वर्तमान में ही भगवत्प्राप्ति हो जाएगी।
साधक का यदि आरंभ से ही यह दृढ़ निश्चय हो कि मेरे को तो केवल भगवत्प्राप्ति ही करनी है (चाहे लौकिक दृष्टि से कुछ भी बने या बिगड़े) तो कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग- किसी भी मार्ग से उसे बहुत जल्दी भगवत्प्राप्ति हो सकती है।
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