श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
वास्तव में ‘मैं क्या हूँ’ इसको तो पता नहीं, पर ‘मैं हूँ’ इस होनेपन में थोड़ा भी संदेह नहीं है। जैसे संसार प्रत्यक्ष दिखता है, ऐसे ही ‘मैं’ –पन का भी भान होता है। इसलिए तत्त्वतः ‘मैं’ क्या है, इसकी खोज करना साधक के लिए बहुत उपयोग है। ‘मैं’ क्या है, इसका तो पता नहीं; परंतु संसार (शरीर) क्या है, इसका तो पता है ही। संसार (शरीर) उत्पत्ति-विनाश वाला है, सदा एकरस रहने वाला नहीं है- यह सबका अनुभव है। इस अनुभव को निरंतर जाग्रत रखना चाहिए। यह नियम है कि ‘संसार’ और ‘मैं’- दोनों में से किसी एक का भी ठीक-ठीक ज्ञान होने पर दूसरे के स्वरूप का ज्ञान अपने-आप हो जाता है। ‘मैं’ का प्रकाशक और आधार (अपना स्वरूप) चेतन और नित्य है। इसलिए उत्पत्ति-विनाश वाले जड़ संसार से स्वरूप का कोई संबंध नहीं है। स्वरूप का तो भगवान से स्वतः सिद्ध संबंध है। इस संबंध को पहचानना ही ‘मैं’ की वास्तविकता का अनुभव करना है। इस संबंध को पहचान लेने पर मन-बुद्धि स्वतः भगवान में लग जाएंगे।[1] ‘निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः’- यहाँ ‘अत ऊर्ध्वम्’- पदों का भाव यह है कि जिस क्षण मन-बुद्धि भगवान में पूरी तरह लग जाएंगे अर्थात मन-बुद्धि में किञ्चिन्मात्र भी अपनापन नहीं रहेगा, उसी क्षण भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। ऐसा नहीं है कि मन-बुद्धि पूर्णतया लगने के बाद भगवत्प्राप्ति में काल का कोई व्यवधान रह जाए। भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! मुझमें ही मन-बुद्धि लगाने पर तू मझमें निवास करेगा, इसमें संशय नहीं है। इससे ऐसा मालूम देता है कि अर्जुन के हृदय में कुछ संशय है, तभी भगवान ‘न संशयः’ पद देते हैं। यदि संशय की संभावना न होती, तो इस पद को देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चेतन और अविनाशी स्वरूप- (आत्मा) को ही ‘स्वयं’ ‘अहम्’ का आधार, वास्तविक ‘मैं’, ‘मैं’ का प्रकाशक, आधार आदि नामों से कहा जाता है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज