श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘मैं भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं’- ऐसा निश्चय (साधक की दृष्टि में) बुद्धि में हुआ प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। बुद्धि में ऐसा निश्चय दिखने पर भी साधक को इस बात का पता नहीं होता कि वह ‘स्वयं’ पहले से ही भगवान में स्थित है। वह चाहे इस बात को न भी जाने, पर वास्तविकता यही है। ‘स्वयं’ भगवान में स्थित होने की पहचान यही है कि इस संबंध की कभी विस्मृति नहीं होती। अगर यह केवल बुद्धि की बात हो, तो भूली भी जा सकती है, पर ‘मैं’ -पन की बात को साधक कभी नहीं भूलता। जैसे, ‘मैं विवाहित हूँ’ यह ‘मैं’ –पन का निश्चय है, बुद्धि का नहीं। इसलिए मनुष्य इस बात को कभी नहीं भूलता। अगर कोई यह निश्चय कर ले कि मैं अमुक गुरु का शिष्य हूँ, तो इस संबंध के लिए कोई अभ्यास न करने पर भी यह निश्चय उसके भीतर अटल रहता है। स्मृति में तो स्मृति रहती ही है, विस्मृति में भी संबंध की स्मृति का अभाव नहीं होता; क्योंकि संबंध का निश्चय ‘मैं’ –पन में है। इस प्रकार संसार में माना हुआ संबंध भी जब स्मृति और विस्मृति दोनों अवस्थाओं में अटल रहता है, तब भगवान के साथ जो सदा से ही नित्य-संबंध है, उसकी विस्मृति कैसे हो सकती है? अतः ‘मैं भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं’- इस प्रकार ‘मैं’-पन (स्वयं) के भगवान में लग जाने से मन-बुद्धि भी स्वतः भगवान में लग जाते हैं। मन-बुद्धि में अंतःकरण चतुष्टय का अंतर्भाव है। मन के अंतर्गत चित्त का और बुद्धि के अंतर्गत अहंकार का अंतर्भाव है। मन-बुद्धि भगवान में लगने से अहंकार का आधार ‘स्वयं’ भगवान में लग जाएगा और परिणाम स्वरूप ‘मैं भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं’ ऐसा भाव हो जाएगा। इस भाव में निर्विकल्प स्थिति होने से ‘मैं’ –पन भगवान में लीन हो जाएगा। साधारणतया अपना स्वरूप (‘मैं’ –पन का आधार ‘स्वयम्’) मन, बुद्धि, शरीर आदि के साथ दिखता है, पर वास्तव में इनके साथ है नहीं। सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव कर सकता है कि बचपन से लेकर अब तक शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सब-के-सब बदल गए, पर मैं वहीं हूँ। अतः ‘मैं बदलने वाला नहीं हूँ’ इस बात को आज से ही दृढ़तापूर्वक मान लेना चाहिए। (साधारणतया मनुष्य बुद्धि से ही समझने की चेष्टा करता है, पर यहाँ स्वयं से जानने की बात है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 9।30-31
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