श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘क्लोशोऽधिकतरः’ पद का भाव यह है कि जिन साधकों का चित्त निर्गुण-तत्तव में तल्लीन नहीं होता, ऐसे निर्गुण-उपासकों को देहाभिमान के कारण अपनी साधना में विशेष कष्ट अर्थात कठिनाई होती है।[1] गौणरूप से इस पद का भाव यह है कि साधना की प्रारंभिक अवस्था से लेकर अंतिम अवस्था तक के सभी निर्गुण-उपासकों को सगुण-उपासकों से अधिक कठिनाई होती है। अब सगुण-उपासना की सुगमताओं और निर्गुण-उपासना की कठिनाताओं का विवेचन किया जाता है-
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । अतः उसकी सांसारिक आसक्ति सुगमता से मिट जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साधक मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं-
एक तो वे साधक हैं, जो सत्संग, श्रवण और शास्त्राध्ययन के फलस्वरूप साधन में प्रवृत्त होते हैं। इनको अपने साधन में अधिक क्लेश होता है। दूसरे वे साधक हैं, जिनकी साधन में स्वाभाविक रुचि तथा संसार से स्वाभाविक बैराग्य होता है। इनको अपने साधन में कम क्लेश होता है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि साधक दो ही प्रकार के क्यों होते हैं? इसका समाधान यह है कि गीता में योगभ्रष्ट पुरुष की गति के वर्णन में भगवान ने दो ही गतियों का वर्णन किया है-- कुछ योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यलोकों में जाते हैं और वहाँ भोग भोगकर लौटने पर शुद्ध आचरण वाले श्रीमानों के घर में जन्म लेते हैं और पुन: साधनरत होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं (गीता 6।41,44-45)।
- कुछ योगभ्रष्ट पुरुष सीधे ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेते हैं और फिर साधन करके परमात्मा को प्राप्त होते हैं। ऐसे कुल में जन्म होना 'दुर्लभतर' है (गीता 6।42-43)
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