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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
साधक अपनी बुद्धि से सर्वत्र परमात्मा को देखने की चेष्टा करता है, जबकि सिद्ध महापुरुषों की बुद्धि में परमात्मा स्वाभाविक रूप से इतनी घनता से परिपूर्ण हैं कि उनके लिए परमात्मा के सिवाय और कुछ है ही नहीं। इसलिए उनकी बुद्धि का विषय परमात्मा नहीं है, प्रत्युत उनकी बुद्धि ही परमात्मा से परिपूर्ण है। अतः वे ‘सर्वत्र समबुद्धयः’ हैं।
‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’- निर्गुण के उपासक कहीं यह समझ लें कि निर्गुण तत्त्व कोई दूसरा है और सगुण कोई दूसरा है, इसलिए भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि निर्गुण ब्रह्म मुझसे भिन्न नहीं है।[1] सगुण और निर्गुण दोनों मेरे ही स्वरूप हैं।
इन दोनों श्लोकों में भगवान ने निर्गुण- उपासकों के लिए चार बातें बतायी हैं (1) निर्गुण-तत्त्व का स्वरूप क्या है, (2) साधक की स्थिति क्या है, (3) उपासना का स्वरूप क्या है और (4) साधक क्या प्राप्त करता है।
- अर्जुन ने इसी अध्याय के पहले श्लोक के उत्तरार्ध में जिस निर्गुण-तत्त्व के लिए ‘अक्षरम्’ और ‘अव्यक्तम्’ दो विशेषण प्रयुक्त करके प्रश्न किया था, उसी तत्त्व का विस्तार से वर्णन करने के लिए भगवान ने छः और विशेषण अर्थात कुछ आठ विशेषण दिए, जिनमें पाँच निषेधात्मक (अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, अचिन्तयम् और अचलम्) तथा तीन विध्यात्मक (सर्वत्रगम्, कूटस्थम् और ध्रुवम्) विशेषण हैं।
- सब देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में परिपूर्ण तत्त्व पर दृष्टि रहने से निर्गुण-उपासकों की सर्वत्र समबुद्धि होती है। देहाभिमान और भोगों की पृथक सत्ता मानने के कारण ही भोग भोगने की इच्छा होती है और भोग भोगे जाते हैं। परंतु इन निर्गुण-उपासकों की दृष्टि में एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की पृथक (स्वतंत्र) सत्ता न होने के कारण उनकी बुद्धि में भोगों का महत्त्व नहीं रहता। अतः वे सुगमतापूर्वक इंद्रियों का संयम कर लेते हैं। सर्वत्र समबुद्धि वाले होने के कारण उनकी सब प्राणियों के हित में रति रहती है। इसलिए वे ‘सर्वभूतहिते रताः’ हैं।
- साधक का सब समय उस निर्गुण तत्त्व की ओर दृष्टि रखना (तत्त्व के सम्मुख रहना) ही ‘उपासना’ है।
- भगवान कहते हैं कि ऐसे साधकों को जो निर्गुण-ब्रह्म प्राप्त होता है, वह मैं ही हूँ। तात्पर्य यह है कि सगुण और निर्गुण एक ही तत्त्व है।
संबंध- अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान ने दूसरे श्लोक में सगुण-उपासकों को सर्वश्रेष्ठ बताया और तीसरे-चौथे श्लोकों में निर्गुण-उपासकों को अपनी प्राप्ति की बात कही। अब दोनों प्रकार की उपासनाओं के अवान्तर भेद तथा कठिनाई एवं सुगमता का वर्णन आगे के तीन श्लोकों में करते हैं।
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