श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
केवल दूसरे के लिए वस्तुओं को देना और शरीर से सेवा कर देना ही सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिए कुछ भी न चाहकर दूसरे का हित कैसे हो, उसको सुख कैसे मिले- इस भाव से कर्म करना ही सेवा है। अपने को सेवक कहलाने का भाव भी मन में नहीं रहना चाहिए। सेवा तभी हो सकती है, जब सेवक जिसकी सेवा करता है, उसे अपने से अभिन्न (अपने शरीर की तरह) मानता है और बदले में उससे कुछ भी लेना नहीं चाहता। जैसे मनुष्य बिना किसी के उपदेश दिए अपने शरीर की सेवा स्वतः ही बड़ी सावधानी से करता है और सेवा करने का अभिमान भी नहीं करता, ऐसे ही सर्वत्र आत्मबुद्धि होने से सिद्ध महापुरुषों की स्वतः सबके हित में रति रहती है।[2] उनके द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण होता है; परंतु उनके मन में लेशमात्र भी ऐसा भाव नहीं होता कि हम किसी का कल्याण कर रहे हैं। उनमें अहंता का सर्वथा अभाव हो जाता है। अतः ऐसे जीवन्मुक्त महापुरुषों को आदर्श मानकर साधक को चाहिए कि सर्वत्र आत्मबुद्धि करके संसार के किसी भी प्राणी को किञ्चिन्मात्र भी दुःख न पहुँचाकर उनके हित में सदा तत्परता से स्वाभाविक ही रत रहे। ‘सर्वत्र समबुद्धयः’- इस पद का भाव यह है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म के उपासकों की दृष्टि संपूर्ण प्राणी पदार्थों में परिपूर्ण परमात्मा पर ही रहने के कारण विषम नहीं होती; क्योंकि परमात्मा सम है।[3] यहाँ भगवान ज्ञान निष्ठा वाले उपासकों के लिए इस पद का प्रयोग करके एक विशेष भाव प्रकट करते हैं कि ज्ञान मार्गियों के लिए एकान्त में रहकर तत्त्व का चिन्तन करना ही एकमात्र साधन नहीं है; क्योंकि ‘समबुद्धयः’ पद की सार्थकता विशेष रूप से व्यवहार काल में ही होती है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज