श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
परमात्मा को तत्त्व से समझाने के लिए दो प्रकार के विशेषण दिए जाते हैं- निषेधात्मक और विध्यात्मक। परमात्मा के अक्षर, अनिर्देश्य, अव्यक्त, अचिन्त्य, अचल, अव्यय, असीम, अपार, अविनाशी आदि विशेषण ‘निषेधात्मक’ हैं और सर्वव्यापी, कूटस्थ, ध्रुव, सत्, चित्, आनन्द आदि विशेषण ‘विध्यात्मक’ हैं। परमात्मा के निषेधात्मक विशेषणों का तात्पर्य प्रकृति से परमात्मा की ‘असंगता’ बताना है और विध्यात्मक विशेषणों का तात्पर्य परमात्मा की स्वतंत्र ‘सत्ता’ बताना है। परमात्मतत्त्व सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों से परे (सहज निवृत्त) और दोनों को समान रूप से प्रकाशित करने वाला है। ऐसे निरपेक्ष परमात्मतत्त्व का लक्ष्य कराने के लिए और बुद्धि को परमात्मा के नजदीक पहुँचाने के लिए ही भिन्न-भिन्न विशेषणों से परमात्मा का वर्णन (लक्ष्य) किया जाता है। गीता में परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। परमात्मा के लिए यहाँ जो विशेषण दिए गये हैं, वही विशेषण गीता में जीवात्मा के लिए भी दिए गये हैं; जैसे- दूसरे अध्याय के चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में ‘सर्वगतः’, ‘अचल’, ‘अव्यक्तः’, ‘अचिन्त्यः’ आदि और पंद्रहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में ‘कूटस्थः’ एवं ‘अक्षरः’ विशेषण जीवात्मा के लिए आए हैं। इसी प्रकार सातवें अध्याय के पच्चीसवें श्लोक में ‘अव्ययम्’ विशेषण परमात्मा के लिए और चौदहवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में ‘अव्ययम्’ विशेषण जीवात्मा के लिए आया है। संसार में व्यापक-रूप से भी परमात्मा और जीवात्मा को समान बताया गया है; जैसे- आठवें अध्याय के बाईसवें तथा अठारहवें अध्याय के छियालीसवें श्लोक में ‘येन सर्वमिदं ततम्’ पदों से और नवें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘मया ततमिदं सर्वम्’ पदों से परमात्मा को संपूर्ण जगत में व्याप्त बताया गया है। इसी प्रकार दूसरे अध्याय के सत्रहवें श्लोक में ‘येन सर्वमिदं ततम्’ पदों से जीवात्मा को भी संपूर्ण जगत में व्याप्त बताया गया है। जैसे नेत्रों की दृष्टि आपस में नहीं टकराती अथवा व्यापक होने पर भी शब्द परस्पर नहीं टकराते। ऐसे ही (द्वैतमत के अनुसार) संपूर्ण जगत में समानरूप से व्याप्त होने पर भी निरवयव होने से परमात्मा और जीवात्मा की सर्वव्यापकता आपस में नहीं टकराती। ‘सर्वभूतहिते रताः’- कर्मयोग के साधन में आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थ के त्याग की मुख्यता है। मनुष्य जब शरीर, धन, संपत्ति आदि पदार्थों को ‘अपना’ और ‘अपने लिए’ न मानकर उनको दूसरों की सेवा में लगाता है; तब उसकी आसक्ति, ममता, कामना और स्वार्थभाव का त्याग स्वतः हो जाता है। जिसका उद्देश्य प्राणिमात्र की सेवा करना ही है, वह अपने शरीर और पदार्थों को (दीन-दुःखी, अभावग्रस्त) प्राणियों की सेवा में लगायेगा ही। शरीर को दूसरों की सेवा में लगाने से ‘अहंता’ और पदार्थों को दूसरों की सेवा में लगाने से ‘ममता’ नष्ट होती है। |
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