श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘कूटस्थम्’- यह पद निर्विकार, सदा एकरस रहने वाले सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का वाचक है। सभी देश, काल, वस्तु व्यक्ति आदि में रहते हुए भी वह तत्त्व सदा निर्विकार और निर्लिप्त रहता है। उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिए वह ‘कूटस्थ’ है। कूट (अहरन) में तरह-तरह के गहने, अस्त्र, औजार आदि पदार्थ गढ़े जाते हैं, पर वह ज्यों-का-त्यों रहता है। इसी प्रकार संसार के भिन्न-भिन्न प्राणी पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश होने पर भी परमात्मा सदा ज्यों के त्यों रहते हैं। ‘अचलम्’- यह पद आने जाने की क्रिया से सर्वथा रहित ब्रह्म का वाचक है। प्रकृति चल है और ब्रह्म अचल है। ‘ध्रुवम्’- जिसकी सत्ता निश्चित (सत्य) और नित्य है, उसको ‘ध्रुव’ कहते हैं। सच्चिदानन्दघन ब्रह्म सत्तारूप से सर्वत्र विद्यमान रहने से ‘ध्रुवम्’ है। निर्गुण ब्रह्म के आठों विशेषणों में सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषण ‘ध्रुवम्’ है। ब्रह्म के लिए अनिर्देश्य, अचिन्त्य आदि निषेधात्मक विशेषण देने से कोई ऐसा न समझ ले कि वह है ही नहीं, इसलिए यहाँ ‘ध्रुवम्’ विशेषण देकर उस तत्त्व की निश्चित सत्ता बतायी गयी है। उस तत्त्व का कभी कहीं किञ्चिन्तमात्र भी अभाव नहीं होता। उसकी सत्ता से ही असत् (संसार) को सत्ता मिल रही है- जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया ।।[1] ‘अक्षरम्’- जिसका कभी क्षरण अर्थात विनाश नहीं होता तथा जिसमें कभी कोई कमी नहीं आती, वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ‘अक्षरम्’ है। ‘अव्यक्तम्’- जो व्यक्त न हो अर्थात मन-बुद्धि-इंद्रियों का विषय न हो और जिसका कोई रूप या आकार न हो, उसको ‘अव्यक्तम्’ कहा गया है। ‘पर्युपासते’- यह पद यहाँ निर्गुण-उपासकों की सम्यक उपासना का बोधक है। शरीर सहित संपूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना तथा अहंभाव का अभाव तथा भावरूप सच्चिदानन्दघन परमात्मा में अभिन्न भाव से नित्य-निरंतर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। न श्लोकों में आठ विशेषणों से जिस विशेष वस्तु तत्त्व का लक्ष्य कराया गया है और उससे जो विशेष वस्तु समझ में आती है, वह बुद्धिविशिष्ट ब्रह्म का ही स्वरूप है, जो कि पूर्ण नहीं है; क्योंकि (लक्षण और विशेषणों से रहित) निर्गुण-निर्विशेष ब्रह्म का स्वरूप (जो बुद्धि से अतीत है) किसी भी प्रकार से पूर्णतया बुद्धि आदि का विषय नहीं हो सकता। हाँ, इन विशेषणों का लक्ष्य रखकर जो उपासना की जाती है, वह निर्गुण ब्रह्म की उपासना है और इसके परिणाम में प्राप्ति भी निर्गुण ब्रह्म की ही होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 11।117।4
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