श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
जड़ता (प्रकृति) के सम्मुख होने के कारण अर्थात उससे सुखभोग करते रहने के कारण जीव शरीर से ‘मैं’ पन का संबंध जोड़ लेता है अर्थात ‘मैं शरीर हूँ’ ऐसा मान लेता है। इस प्रकार शरीर से माने हुए संबंध के कारण वह वर्ण, आश्रम, जाति, नाम, व्यवसाय तथा बालकपन, जवानी आदि अवस्थाओं को बिना याद किए भी (स्वाभाविक रूप से) अपनी ही मानता रहता है अर्थात अपने को उनसे अलग नहीं मानता। जीव की विजातीय शरीर और संसार के साथ (भूल से की हुई) संबंध की मान्यता भी इतनी दृढ़ रहती है कि बिना याद किए सदा याद रहती है। अगर वह अपने सजातीय (चेतन और नित्य) परमात्मा के साथ अपने वास्तविक संबंध को पहचान ले, तो किसी भी अवस्था में परमात्मा को नहीं भूल सकता। फिर उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते हर समय प्रत्येक अवस्था में भगवान का स्मरण-चिन्तन स्वतः होने लगता है। जिस साधक का उद्देश्य सांसारिक भोगों का संग्रह और उनसे सुख लेना नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मा को प्राप्त करना ही है, उसके द्वारा भगवान से अपने संबंध की पहचान आरंभ हो गयी- ऐसा मान लेना चाहिए। इस संबंध की पूर्ण पहचान के बाद साधक में मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर आदि के द्वारा संसारिक भोग और उनका संग्रह करने की इच्छा बिलकुल नहीं रहती। वास्तव में एकमात्र भगवान का होते हुए जीव जितने अंश में प्रकृति से सुख-भोग प्राप्त करना चाहते हैं, उतने ही अंश में उसने इस भगवत्संबंध को दृढ़तापूर्वक नहीं पकड़ा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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