श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । अर्थ- मेरे में मन को लगाकर नित्य-निरंतर मेरे में लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं। व्याख्या- [ भगवान ने ठीक यही निर्णय अर्जुन के बिना पूछे ही छठे अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में दे दिया था। परंतु उस विषय में अपना प्रश्न न होने के कारण अर्जुन उस निर्णय को पकड़ नहीं पाए। कारण कि स्वयं का प्रश्न न होने से सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्य में नहीं आती। इसलिए उन्होंने इस अध्याय के पहले श्लोक में ऐसा प्रश्न किया। इसी प्रकार अपने मन में किसी विषय को जानने का पूर्ण अभिलाषा और उत्कण्ठा के अभाव में तथा अपना प्रश्न न होने के कारण सत्संग में सुनी हुई और शास्त्रों में पढ़ी हुई साधन-संबंधी मार्मिक और महत्त्वपूर्ण बातें प्रायः साधकों के लक्ष्य में नहीं आतीं। अगर वही बात उनके प्रश्न करने पर समझायी जाती है, तो वे उसको अपने लिए विशेष रूप से कही गयी मानकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लेते हैं। प्रायः वे सुनी और पढ़ी हुई बातों को अपने लिए न समझकर उनकी उपेक्षा कर देते हैं, जबकि उनमें उस बात के संस्कार सामान्यरूप से रहते ही हैं, जो विशेष उत्कण्ठा होने से जाग्रत भी हो सकते हैं। अतः साधकों को चाहिए कि वे जो पढ़े और सुनें, उसको अपने लिए ही मानकर जीवन में उतारने की चेष्टा करें।] ‘मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते’- मन वहीं लगता है, जहाँ प्रेम होता है। जिसमें प्रेम होता है, उसका चिन्तन स्वतः होता है। ‘नित्ययुक्ताः’ का तात्पर्य है कि साधक स्वयं भगवान में लग जाए। ‘भगवान ही मेरे हैं और मैं भगवान का ही हूँ’- यही स्वयं का भगवान में लगना है। स्वयं का दृढ़ उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होने पर भी मन-बुद्धि स्वतः भगवान में लगते हैं। इसके विपरीत स्वयं का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति न हो तो मन-बुद्धि को भगवान में लगाने का यत्न करने पर भी वे पूरी तरह भगवान में नहीं लगते। परंतु जब स्वयं ही अपने-आपको भगवान का मान ले, तब तो मन-बुद्धि भगवान में तल्लीन हो ही जाते हैं। स्वयं कर्ता है और मन-बुद्धि करण हैं। करण कर्ता के ही आश्रित रहते हैं। जब कर्ता भगवान का हो जाए, तब मन-बुद्धिरूप करण स्वतः भगवान में लगते हैं। साधक से भूल यह होती है कि वह स्वयं भगवान में न लगकर अपने मन-बुद्धि को भगवान में लगाने का अभ्यास करता है। स्वयं भगवान में लगे बिना मन-बुद्धि को भगवान में लगाना कठिन है। इसलिए साधकों की यह व्यापक शिकायत रहती है कि मन-बुद्धि भगवान में नहीं लगते। मन-बुद्धि एकाग्र होने से सिद्धि (समाधि आदि) तो हो सकती है, पर कल्याण स्वयं के भगवान में लगने से ही होगा। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज