श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः । अर्थ- ‘संगवर्जितः निर्वैरः सर्वभूतेषु यः’- केवल भगवान के लिए ही कर्म करने से, केवल भगवान के ही परायण रहने से और केवल भगवान का ही भक्त बनने से क्या होता है? इसका उपर्युक्त पदों से वर्णन करते हैं कि वह ‘संगवर्जितः’ हो जाता है अर्थात उसकी संसार में आसक्ति, ममता और कामना नहीं रहती। आसक्ति, ममता और कामना से ही संसार के साथ संबंध होता है। भगवान में अनन्य प्रेम होते ही आसक्ति आदि का अत्यंत अभाव हो जाता है। दूसरी बात, जब भक्त को ‘मैं भगवान का ही अंश हूँ’- इस वास्तविकता का अनुभव हो जाता है, तब उसका भगवान में प्रेम जाग्रत हो जाता है। प्रेम जाग्रत होने पर राग का अत्यंत अभाव हो जाता है। राग का अत्यंत अभाव होने से और सर्वत्र भगवद्भाव होने से उसके शरीर के साथ कोई कितना ही दुर्व्यवहार करे, उसको मारे-पीटे, उसका अनिष्ट करे, तो भी उसके हृदय में अनिष्ट करने वाले के प्रति किञ्चिन्मात्र भी वैरभाव उत्पन्न नहीं होता। वह उसमें भगवान की ही मरजी, कृपा मानता है। ऐसे भक्त को भगवान ने ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’ कहा है। ‘संगवर्जितः’ और ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’- इन दोनों का वर्णन करने का तात्पर्य ‘उसका संसार से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है’ यह बताने में है। संसार से संबंध-विच्छेद होने पर स्वतःसिद्ध परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। ‘स मामेति’- ऐसा वह मेरा भक्त मेरे को ही प्राप्त हो जाता है। ‘स मामेति’ में तत्त्व से जानना, दर्शन करना और प्राप्त होना- ये तीनों ही बातें आ जाती हैं, जो कि पीछे के (चौवनवें) श्लोक में बतायी गयी हैं। तात्पर्य है कि जिस उद्देश्य से मनुष्य जन्म हुआ है, वह उद्देश्य सर्वथा पूर्ण हो जाता है। श्रीभगवान ने नवें अध्याय के अंत में कहा था- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । इस मनुष्य के पास दो शक्तियाँ हैं- चिन्तन करने की और देखने की। इनमें से जो चिन्तन करने की शक्ति है, उसको भगवान की विभूतियों में लगाना चाहिए। तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति आदि में जो कुछ विशेषता, महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता दिखे और उसमें मन चला जाए, उस विशेषता आदि को भगवान की ही मानकर वहाँ भगवान का ही चिन्तन होना चाहिए। इसके लिए भगवान ने दसवाँ अध्याय कहा है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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