श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
ऐसे ही देवता भगवान के दर्शन की लालसा भी रखें, तो भी उनको देवत्व-शक्ति से दर्शन नहीं हो सकते; क्योंकि भगवान के दर्शन में देवत्व कारण नहीं है। तात्पर्य है कि भगवान को न दो देवत्व शक्ति से देखा जा सकता है और न यज्ञ, तप, दान आदि शुभ-कर्मों से ही देखा जा सकता है।[1] उनको तो अनन्यभक्ति से ही देखा जा सकता है।[2] अनन्यभक्ति से देवता और मनुष्य- दोनों ही भगवान को देख सकते हैं। ‘देवा अपि’ कहने का तात्पर्य है कि जिन पुण्यों के कारण देवताओं को ऊँचा पद मिला है, ऊँचे (दिव्य) भोग मिले हैं, उन पुण्यों के बल से, पद आदि के बल से वे भगवान के दर्शन नहीं कर सकते। तात्पर्य है कि पुण्यकर्म ऊँचे लोक, ऊँचे भोग तो दे सकते हैं, पर भगवान के दर्शन कराने की उनमें सामर्थ्य नहीं है। भगवान के दर्शन में यह प्राकृत महत्त्व कुछ भी मूल्य नहीं रखता। संबंध- पूर्वश्लोक में कही हुई बात को ही भगवान आगे के श्लोक में पुष्ट करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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