श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । अर्थ- श्री भगवान बोले- मेरा य जो रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यंत ही दुर्लभ हैं। इस रूप को देखने के लिए देवता भी नित्य लालायित रहते हैं। व्याख्या- ‘सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम’- यहाँ ‘सुदुर्शशंम्’ पद चतुर्भुज रूप के लिए ही आया है, विराटरूप या द्विभुजरूप के लिए नहीं। कारण कि विराटरूप की तो देवता भी कल्पना क्यों करने लगे! और मनुष्य रूप जब मनुष्यों के लिए सुलभ था, तब देवताओं के लिए वह दुर्लभ कैसे होता! इसलिए ‘सुदुर्दर्शम्’ पद से भगवान विष्णु का चतुर्भुज रूप ही लेना चाहिए, जिसके लिए ‘देवरूपम्’[1] और ‘स्वकं रूपम्'[2] पद आये हैं। ‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांक्षिणः’- भगवान ने यहाँ कहा है कि मेरा यह जो चतुर्भुजरूप है इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। आगे तिरपनवें-चौपनवें श्लोकों में कहा है कि इस चतुर्भुज रूप के दर्शन वेद, यज्ञ, तप, दान आदि साधनों से नहीं हो सकते; प्रत्युत इसके दर्शन तो अनन्यभक्ति से ही हो सकते हैं। अब यहाँ एक शंका होती है कि देवता भी इस रूप के दर्शन की नित्य आकांक्षा (लालसा) रखते हैं, फिर उनको दर्शन क्यों नहीं होते? जबकि भगवान के दर्शन की नित्य लालसा रहना आनन्य भक्ति ही है। इसका समाधान यह है कि वास्तव में देवताओं की नित्य लालसा अनन्य भक्ति नहीं है। नित्य लालसा रखने का तात्पर्य है कि नित्य-निरंतर एक परमात्मा की ही लालसा लगी रहे और दूसरी कोई लालसा न रहे। ऐसी लालसा वाला दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवान का भक्त हो जाता है और उसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है। परंतु ऐसी अनन्य लालसा देवताओं की नहीं होती; क्योंकि वे प्रायः भोग भोगने के लिए ही देवता बने हैं और उनका प्रायः भोग भोगने का ही उद्देश्य होता है। तो फिर उनकी लालसा कैसी होती है? जैसी लालसा (इच्छा) प्रायः सभी आस्तिक मनुष्यों में रहती है कि ‘हमें भगवान के दर्शन हो जाएं, हमारा कल्याण हो जाए।’ उनकी ऐसी इच्छा तो रहती है, पर भोग संग्रह की रुचि ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। तात्पर्य है कि जैसे मार्ग में चलते हुए किसी को मणि मिल जाए, ऐसे ही (गौणता से) हमारी मुक्ति हो जाए तो अच्छी बात है[3]- इस प्रकार जैसे मनुष्यों में मुक्ति की इच्छा गौण होती है, ऐसे ही भगवान दर्शन दें तो हम भी दर्शन कर लें- इस प्रकार देवताओं में दर्शन की इच्छा गौण होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11:45
- ↑ गीता 11:50
- ↑ मार्गें प्रयाते मणिलाभवन्मे लभेत मोक्षो यदि तर्हि धन्यः ।
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