श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
भगवान का विश्वरूप दिव्य है, अविनाशी है, अक्षय है। इस विश्वरूप में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं तथा उन ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी अनन्त हैं। इस नित्य विश्वरूप से अनन्त विश्व (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हो-होकर उसमें लीन होते रहते हैं, पर यह विश्वरूप अव्यय होने से ज्यों-का-त्यों ही रहता है। यह विश्वरूप इतना दिव्य, अलौकिक है कि हजारों भौतिक सूर्यों का प्रकाश भी इसके प्रकाश का उपमेय नहीं हो सकता।[1] इसलिए इस विश्वरूप को ‘दिव्यचक्षु’ के बिना कोई भी देख नहीं सकता। ‘ज्ञानचक्षु’ के द्वारा संसार के मूल में सत्ता रूप से जो परमात्मतत्त्व है, उसका बोध होता है और ‘भावचक्षु’ से संसार भगवत्स्वरूप दिखता है, पर इन दोनों ही चक्षुओं से विश्वरूप का दर्शन नहीं होता। ‘चर्मचक्षु’ से न तो तत्त्व का बोध होता है, न संसार भगवत्स्ववरूप दिखता है और न विश्वरूप का दर्शन ही होता है; क्योंकि चर्मचक्षु प्रकृति का कार्य है। इसलिए चर्मचक्षु से प्रकृति के स्थूल कार्य को ही देखा जा सकता है। वास्तव में भगवान के द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि जितने भी रूप हैं, वे सब-के-सब दिव्य और अव्यय हैं। इसी तरह भगवान के सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार आदि जितने रूप हैं, वे सब-के-सब भी दिव्य और अव्यय हैं। माधुर्य-लीला में तो भगवान द्विभुजरूप ही रहते हैं; परंतु जहाँ अपना कुछ ऐश्वर्य दिखलाने की आवश्यकता होती है, वहाँ भगवान पात्र, अधिकार, भाव आदि के भेद से अपना विराटरूप भी दिखा देते हैं। जैसे, भगवान ने अर्जुन को मनुष्य रूप से प्रकट हुए अपने द्विभुजरूप- शरीर के किसी अंश में विराटरूप दिखाया है। भगवान में अनन्त-असीम ऐश्वर्य, माधुर्य, सौंदर्य, औदार्य आदि दिव्य गुण हैं। इन अनन्त दिव्य गुणों के सहित भगवान का विश्वरूप है। भगवान जिस-किसी को ऐसा विश्वरूप दिखाते हैं, उसे पहले दिव्यदृष्टि देते हैं। दिव्यदृष्टि देने पर भी वह जैसा पात्र होता है, जैसी योग्यता और रुचि वाला होता है, उसी के अनुसार भगवान उसको अपने विश्वरूप के स्तरों का दर्शन कराते हैं। यहाँ ग्यारहवें अध्याय के पंद्रहवें से तीसवें श्लोक तक भगवान विश्वरूप से अनेक स्तरों से प्रकट होते गए, जिसमें पहले देवरूप की[2], फिर उग्ररूप की[3] और उसके बाद अत्युग्ररूप की[4] प्रधानता रही। अत्युग्ररूप को देखकर जब अर्जुन भयभीत हो गए, तब भगवान ने अपने दिव्यातिदिव्य विश्वरूप के स्तरों को दिखाना बंद कर दिया अर्थात अर्जुन के भयभीत होने के कारण भगवान ने अगले रूपों के दर्शन नहीं कराए। तात्पर्य है कि भगवान ने दिव्य विराटरूप के अनन्त स्तरों में से उतने ही स्तर अर्जुन को दिखाये, जितने स्तरों को दिखाने की आवश्यकता थी और जितने स्तर देखने की अर्जुन में योग्यता थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11:12
- ↑ गीता 11।15-18
- ↑ गीता 11।19-22
- ↑ गीता 11।23-30
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