श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशांकः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । अर्थ- आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्मा जी के भी पिता) हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो!! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो! नमस्कार हो!! व्याख्या- ‘वायुः’- जिससे सबको प्राण मिल रहे हैं, मात्र प्राणी जी रहे हैं, सबको सामर्थ्य मिल रही हैं, वह वायु आप ही हैं। ‘यमः’- जो संयमनीपुरी के अधिपति हैं और संपूर्ण संसार पर जिनका शासन चलता है, वे यम आप ही हैं। ‘अग्निः’- जो सबमें व्याप्त रहकर शक्ति देता है, प्रकट होकर प्रकाश देता है और जठराग्नि के रूप में अन्न का पाचन करता है, वह अग्नि आप ही हैं। ‘वरुणः’- जिसके द्वारा सबको जीवन मिल रहा है, उस जल के अधिपति वरुण आप ही हैं। ‘शशांकः’- जिससे संपूर्ण औषधियों का, वनस्पतियों का पोषण होता है, वह चंद्रमा आप ही हैं। ‘प्रजापतिः’- प्रजा को उत्पन्न करने वाले दक्ष आदि प्रजापति आप ही हैं। ‘प्रपितामहः’- पितामह ब्रह्मा जी को भी प्रकट करने वाले होने से आप प्रपितामह हैं। ‘नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते’- इंद्र आदि जितने भी देवता हैं, वे सब-के-सब आप ही हैं। आप अनन्त स्वरूप हैं। आपकी मैं क्या स्तुति करूँ? क्या महिमा गाऊँ? मैं तो आपको हजारों बार नमस्कार ही कर सकता हूँ और कर ही क्या सकता हूँ? कुछ भी करने की जिम्मेवारी मनुष्य पर तभ तक रहती है, जब तक अपने में करने का बल अर्थात अभिमान रहता है। जब अपने में कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रहती, तब करने की जिम्मेवारी बिलकुल नहीं रहती। अब वह केवल नमस्कार ही करता है अर्थात अपने-आपको सर्वथा भगवान के समर्पित कर देता है। फिर करने-कराने का सब काम शरण्य (भगवान) का ही रहता है, शरणागत का नहीं। |
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