श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
‘मेरे द्वारा मारे हुए को तू मार’- इस कथन से यह शंका होती है कि कालरूप भगवान के द्वारा सब-के-सब मारे हुए हैं तो संसार में कोई किसी को मारता है तो वह भगवान के द्वारा मारे हुए को ही मारता है। अतः मारने वालो को पाप नहींं लगना चाहिए। इसका समाधान यह है कि किसी को मारने का या दुःख देने का अधिकार मनुष्य को नहींं है। उसका तो सबकी सेवा करने का, सबको सुख पहुँचाने का ही अधिकार है। अगर मारने का अधिकार मनुष्य को होता तो विधि-निषेध अर्थात शुभकर्म करो, अशुभ कर्म मत करो- ऐसा शास्त्रों का, गुरुजनों और संतों का कहना ही व्यर्थ हो जाएगा। वह विधि-निषेध किस पर लागू होगा? अतः मनुष्य किसी को मारता है या दुःख देता है तो उसको पाप लगेगा ही; क्योंकि यह उसकी राग-द्वेषपूर्वक अनधिकार चेष्टा है। परंतु क्षत्रिय के लिए शास्त्रविहित युद्ध प्राप्त हो जाए, तो स्वार्थ और अहंकार का त्याग करके कर्तव्य-पालन करने से पाप नहींं लगता, क्योंकि यह क्षत्रिय का स्वधर्म है। संबंध- विराटरूप भगवान के अत्यंत उग्ररूप को देखकर अर्जुन ने 31वें श्लोक में पूछा कि आप कौन हैं और यहाँ क्या करने आए हैं? बत्तीसवें श्लोक में भगवान ने उसका उत्तर दिया कि मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करने के लिए यहाँ आया हूँ। फिर तैंतीसवें-चौंतीसवें श्लोकों में भगवान ने अर्जुन को आश्वासन दिया कि मेरे द्वारा मारे हुए को ही तू मार दे, तेरी जीत होगी। इसके बाद अर्जुन ने क्या किया- इसको संजय आगे के श्लोक में बताते हैं। |
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