श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः । अर्थ- जैसे पतंगे मोहवश अपना नाश करने के लिए बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्नि में प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग मोहवश अपना नास करने के लिए ही बड़े वेग से दौड़ते हुए आपके मुखों में प्रविष्ट हो रहे हैं। व्याख्या- ‘यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः’- जैसे हरी-हरी घास में रहने वाले पतंगे चातुर्मास की अंधेरी रात्रि में कहीं पर प्रज्वलित अग्नि देखते हैं, तो उस पर मुग्ध होकर (कि बहुत सुंदर प्रकाश मिल गया, हम इससे लाभ ले लेंगे, हमारा अँधेरा मिट जाएगा) उसकी तरफ बड़ी तेजी से दौड़ते हैं। उनमें से कुछ तो प्रज्वलित अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं; कुछ को अग्नि की थोड़ी-सी लपट लग जाती है तो उनका उड़ना बंद हो जाता है और वे तड़पते रहते हैं। फिर भी उनकी लालसा उस अग्नि की तरफ ही रहती है। यदि कोई पुरुष दया करके उस अग्नि की तरफ ही रहती है। यदि कोई पुरुष दया करके उस अग्नि को बुझा देता है तो वे पतंगे बड़े दुःखी हो जाते हैं कि उसने हमारे को बड़े लाभ से वंचित कर दिया! ‘तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः’- भोग भोगने और संग्रह करने में ही तत्परापूर्वक लगे रहना और मन में भोगों और संग्रह का ही चिन्तन होते रहना- यह बढ़ा हुआ सांसारिक वेग है। ऐसे वेग वाले दुर्योधनादि राजा लोग पतंगों की तरह बड़ी तेजी से कालचक्र रूप आपके मुखों में जा रहे हैं अर्थात पतन की तरफ जा रहे हैं- चौरासी लाख योनियों और नरकों की तरफ जा रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि प्रायः मनुष्य सांसारिक भोग, सुख, आराम, मान, आदर आदि को प्राप्त करने के लिए रात-दिन दौड़ते हैं। उनको प्राप्त करने में उनका अपमान होता है, निंदा होती है, घाटा लगता है, चिन्ता होती है, अंतःकरण में जलन होती है और जिस आयु के बल पर वे जी रहे हैं, वह आयु भी समाप्त होती जाती है, फिर भी वे नाशवान भोग और संग्रह की प्राप्ति के लिए भीतर से लालायित रहते हैं[1] संबंध- पीछे के दो श्लोकों में दो दृष्टान्तों से दोनों समुदायों का वर्णन करके अब संपूर्ण लोकों का ग्रसन करते हुए विश्वरूप भगवान के भयानक का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने से मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्राति पिशितम्। विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्वालजटिलान् न मुञ्चामः कामनहह गहनो मोहमहिमा ।। (भर्तृहरिवैराग्यशतक) ‘पतंग दीपक के दाहक स्वरूप को न जानने के कारण ही उस पर गिरता है, मछली भी अज्ञानवश ही बंसी में लगे हुए मांस के टुकड़े को निगलती है; परंतु हम लोग जानते हुए भी विपत्ति के जटिल जाल में फँसाने वाली कामनाओं को नहीं छोड़ते; अहो! मोह की महिमा बड़ी गहन है।’
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज