श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः । हमारे मुख्य योद्धाओं के सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओं के समुदायों के सहित धृतराष्ट्र के वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ों के कारण भयंकर मुखों में बड़ी तेजी से प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमें से कई एक तो चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं। व्याख्या- ‘भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः’- हमारे पक्ष के धृष्टद्युम्न, विराट, द्रुपद आदि जो मुख्य-मुख्य योद्धा लोग हैं, वे सब-के-सब धर्म के पक्ष में हैं और केवल अपना कर्तव्य समझकर युद्ध करने के लिए आये हैं। हमारे इन सेनापतियों के साथ पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और वह प्रसिद्ध सूतपुत्र कर्ण आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। यहाँ भीष्म, द्रोण और कर्ण का नाम लेने का तात्पर्य है कि ये तीनों ही अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए युद्ध में आये थे।[1] ‘अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः’- दुर्योधन के पक्ष में जितने राजा लोग हैं, जो युद्ध में दुर्योधन का प्रिय करना चाहते हैं[2] अर्थात दुर्योधन को हित की सलाह नहीं दे रहे हैं, उन सभी राजाओं के समूहों के साथ धृतराष्ट्र के दुर्योधन, दुःशासन आदि सौ पुत्र विकराल दाढ़ों के कारण अत्यन्त भयानक आपके मुखों में बड़ी तेजी से प्रवेश कर रहे हैं- ‘वक्रताणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।’विराट रूप में चाहे भगवान में प्रवेश करें, चाहे भगवान के मुखों में जायँ, वह एक ही लीला है। परंतु भावों के अनुसार उनकी गलतियाँ अलग-अलग प्रतीत हो रही हैं। इसलिए भगवान में जाएँ अथवा मुखों में जाएं, वे हैं तो विराट रूप में ही। ‘केचिद्वलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमांगैः’- जैसे खाद्य पदार्थों में कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जो चबाते समय सीधे पेट में चले जाते हैं, पर कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जो चबाते समय दाँतों और दाढ़ों के बीच में फँस जाते हैं। ऐसे ही आपके मुखों में प्रविष्ट होने वालों में से कई एक तो सीधे भीतर (पेट में) चले जा रहे हैं, पर कई- एक चूर्ण हुए मस्तकों सहित आपके दाँतों और दाढ़ों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भीष्म- भीष्म जी की प्रतिज्ञा दुनिया में प्रसिद्ध है कि उन्होंने पिता जी की प्रसन्नता के लिए विवाह न करने की प्रतिज्ञा की और आबाल ब्रह्मचारी रहे। इस प्रतिज्ञा पर वे इतने डटे रहे कि उन्होंने गुरु परशुराम जी के साथ युद्ध किया, पर अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। भगवान ने पहले हाथ में शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी। परंतु जब भीष्म जी ने (भगवान की प्रतिज्ञा के विरुद्ध) यह प्रतिज्ञा कर ली कि ‘आजु जो हरिहिं न शस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौ गंगा जाननी को शान्तनु-सुत न कहाऊँ ।।’ तो भगवान को भी अपनी प्रतिज्ञा छोड़कर एक बार चाबुक और दूसरी बार चक्र लेकर भीष्म जी की तरफ दौड़ना पड़ा। इस तरह भीष्म की प्रतिज्ञा बनी रहीं और भगवान की प्रतिज्ञा टूट गयी!
द्रोण- द्रोणाचार्य दुर्योधन का अन्न खाकर उसके वृत्तिभोगी रहे हैं। इसलिए वे युद्ध को अपना कर्तव्य समझकर युद्ध में लग जाते हैं और अन्त में देवताओं की बातें सुनकर और युद्ध में अपने ब्राह्मणोचित धर्म को समझकर युद्ध से उपरत हो जाते हैं। द्रोणाचार्य में इतनी निष्पक्षता थी कि गुरुभक्त और विद्या में तत्पर अर्जुन को ब्रह्मास्त्र छोड़ना और उसका उपसंहार करना (वापस लेना)- ये दो विद्याएँ सिखा दीं; परंतु अपने पुत्र अश्वत्थामा को केवल ब्रह्मास्त्र छोड़ना ही सिखाया, उपसंहार करना सिखाया ही नहीं।
कर्ण- कर्ण की दुर्योधन के साथ मित्रता थी, उस मित्रता रूप कर्तव्य को निभाने के लिए वे युद्ध मे आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा ‘कर्ण! तू कुन्ती का बेटा है’, ऐसा कहने पर भी वे दुर्योधन के पक्ष में ही रहे और उन्होंने भगवान से कहा कि ‘यह बात आप धर्मराज युधिष्ठिर से मत कहना; क्योंकि अगर उनको पता लग जाएगा तो मुझे बड़ा समझकर वे राज्य मुझे दे देंगे और मैं राज्य दुर्योधन को दे दूँगा। इससे पाण्डव सदा के लिए दुःखी रहेंगे।’ कर्ण बड़े दृढ़प्रतिज्ञ थे। वे विचित्र ही दानवीर थे। इन्द्र के माँगने पर उन्होंने अपने नैसर्गिक (जन्मजात) कुण्डल और कवच उतारकर दे दिए थे। माता कुन्ती के द्वारा माँगने पर उन्होंने उनको पाँच पुत्रों के बने रहन का वचन दिया, जिसमें उन्होंने कहा ‘माँ! मैं युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव को तो मारूँगा नहीं, पर अर्जुन के साथ मेरा युद्ध होगा। युद्ध में अगर अर्जुन मेरे को मार देगा, तो तेरे पाँच पुत्र रहेंगे ही और अगर मैं अर्जुन को मार दूँगा, तो भी मेरे सहित तेरे पाँच पुत्र रहेंगे।’ - ↑ गीता 1:23
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