श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्टैव कालानलसन्निभानि । अर्थ- आपके प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित और दाढ़ों के कारण विकराल (भयानक) मुखों को देखकर मुझे न तो दिशाओं का ज्ञान हो रहा है और न शांति ही मिल रही है। इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये। व्याख्या- ‘दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्टैव कालानलसन्निभानि’- महाप्रलय के समय संपूर्ण त्रिलोकी को भस्म करने वाली जो अग्नि प्रकट होती है, उसे संवर्तक अथवा कालाग्नि कहते हैं। उन कालाग्नि के समान आपके मुख हैं, जो भयंकर-भयंकर दाढ़ों के कारण बहुत विकराल हो रहे हैं। उनको देखने मात्र से ही बड़ा भय लग रहा है। अगर उनका कार्य देखा जाए तो उसके सामने किसी का टिकना ही मुश्किल है। ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’- ऐसे विकराल मुखों को देखकर मुझे दिशाओं का भी ज्ञान नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि दिशाओं का ज्ञान होता है सूर्य के उदय और अस्त होने से। पर वह सूर्य तो आपके नेत्रों की जगह है अर्थात वह तो आपके विराट रूप के अंतर्गत आ गया है। इसके सिवाय आपके चारों ओर महान प्रज्वलित प्रकाश-ही-प्रकाश दिख रहा है[1], जिसका न उदय और न अस्त हो रहा है। इसलिए मेरे को दिशाओं का ज्ञान नहीं हो रहा है और विकराल मुखों को देखकर भय के कारण मैं किसी तरह का सुख और शांति भी प्राप्त नहीं कर रहा हूँ। ‘प्रसीद देवेश जगन्निवास’- आप सब देवताओं के मालिक हैं और संपूर्ण संसार आपमें ही निवास कर रहा है। अतः कोई भी देवता, मनुष्य भयभीत होने पर आपको ही तो पुकारेगा! आपके सिवाय और किसको पुकारेगा? तथा और कौन सुनेगा? इसलिए मैं भी आपको पुकारकर कह रहा हूँ कि हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये। भगवान के विकराल रूप को देखकर अर्जुन को ऐसा लगा कि भगवान मानो बड़े क्रोध में आये हुए हैं। इस भावना को लेकर ही भयभीत अर्जुन भगवान से प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। संबंध- अब अर्जुन आगे के दो श्लोकों में मुख्य-मुख्य योद्धाओं का विराट रूप में प्रवेश होने का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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