श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । अर्थ- हे विष्णो! आपके अनेक देदीप्यमान वर्ण हैं, आप अवकाश को स्पर्श कर रहे हैं, आपका मुख फैला हुआ है, आपके नेत्र प्रदीप्त और विशाल हैं। ऐसे आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धैर्य और शान्ति को भी प्राप्त नहीं हो रहा हूँ। व्याख्या- [बीसवें श्लोक में तो अर्जुन ने विराट रूप की लम्बाई-चौड़ाई का वर्णन किया, अब यहाँ केवल लम्बाई का वर्णन करते हैं।] ‘विष्णो’- आप साक्षात सर्वव्यापक विष्णु हैं, जिन्होंने पृथ्वी का भार दूर करने के लिए कृष्णरूप से अवतार लिया है। ‘दीप्तमनेकवर्णम्’- आपके काले, पीले, श्याम, गौर आदि अनेक वर्णन हैं, जो बड़े ही देदीप्यमान हैं। ‘नभः स्पर्शम्’- आपका स्वरूप इतना लम्बा है कि वह आकाश को स्पर्श कर रहा है। वायु का गुण होने से स्पर्श वायु का ही होता है, आकाश का नहीं। फिर यहाँ आकाश को स्पर्श करने का तात्पर्य क्या है? मनुष्य की दृष्टि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक तो उसको आकाश दिखता है, पर उसके आगे कालापन दिखायी देता है। कारण कि जब दृष्टि आगे नहीं जाती, थक जाती है, तब वह वहाँ से लौटती है, जिससे आगे कालापन दिखता है। यही दृष्टि का आकाश को स्पर्श करना है. ऐसे ही अर्जुन की दृष्टि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक उनको भगवान का विराट रूप दिखाई देता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान का विराट रूप असीम है, जिसके सामने दिव्यदृष्टि भी सीमित ही है। ‘व्यात्ताननं दीप्तिविशालनेत्रम्’- जैसे कोई भयानक जन्तु किसी जन्तु को खाने के लिए अपना मुख फैलाता है, ऐसे ही मात्र विश्व को चट करने के लिए आपका मुख फैला हुआ दिख रहा है। आपके नेत्र बड़े ही देदीप्यमान और विशाल दिख रहे हैं। ‘दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो’- इस तरह आपको देखकर मैं भीतर से बहुत व्यथित हो रहा हूँ। मेरे को कहीं से भी धैर्य नहीं मिल रहा है और शांति भी नहीं मिल रही है। यहाँ एक शंका होती है कि अर्जुन में एक तो खुद की सामर्थ्य है और दूसरी, भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य (दिव्यदृष्टि) है। फिर भी अर्जुन तो विश्वरूप को देखकर डर गए, पर संजय नहीं डरे। इसमें क्या कारण है? संतों से ऐसा सुना है कि भीष्म, विदुर, संजय और कुन्ती- ये चारों भगवान श्रीकृष्ण के तत्त्व को विशेषता से जानने वाले थे। इसलिए संजय पहले से ही भगवान के तत्त्व को, उनके प्रभाव को जानते थे, जबकि अर्जुन भगवान के तत्त्व को उतना नहीं जानते थे। अर्जुन का विमूढ़भाव (मोह) अभी सर्वथा दूर नहीं हुआ था।[1] इस विमूढ़भाव के कारण अर्जुन भयभीत हुए। परंतु संजय भगवान के तत्त्व को जानते थे अर्थात उनमें विमूढ़भाव नहीं था: अतः वे भयभीत नहीं हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11:41
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज