श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् । अर्थ- हे महाबाहो! आपके बहुत मुखों और नेत्रों वाले, बहुत भुजाओं, जंघाओं और चरणों वाले, बहुत उदरों वाले, बहुत विकराल दाढ़ों वाले महान रूप को देखकर सब प्राणी व्यथित हो रहे हैं तथा मैं भी व्यथित हो रहा हूँ। व्याख्या- [पंद्रहवें से अठारहवें श्लोक तक विश्वरूप में ‘देव’-रूप का, उन्नीसवें से बाईसवें श्लोक तक ‘उग्र’-रूप का और तेईसवें से तीसवें श्लोक तक ‘अत्यंत उग्र’-रूप का वर्णन हुआ है।] ‘बहुवक्त्रनेत्रम्’- आपके मुख एक-दूसरे से नहीं मिलते। कई मुख सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई मुख छोटे हैं और कई बड़े हैं। ऐसे ही आपके जो नेत्र हैं, वे भी सभी एक समान नहीं दिख रहे हैं। कई नेत्र सौम्य हैं और कई विकराल हैं। कई नेत्र छोटे हैं, कई बड़े हैं, कई लम्बे हैं, कई चौड़े हैं, कई गोल हैं, कई टेढ़े हैं, आदि-आदि।- ‘बहुबाहूरुपादम्’- हाथों की बनावट, वर्ण, आकृति और उनके कार्य विलक्षण-विलक्षण हैं। जंघाएं विचित्र-विचित्र हैं और चरण भी तरह-तरह के हैं। ‘बहूदरम्’ एक समान नहीं है। कोई बड़ा, कोई छोटा, कोई भयंकर आदि कई तरह के पेट हैं। ‘बहुदंष्ट्राकरालं दृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्’- मुखों में बहुत प्रकार की विकराल दाढ़े है। ऐसे महान भयंकर, विकराल रूप को देखकर सब प्राणी व्याकुल हो रहे हैं और मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। इस श्लोक से पहले कहे हुए श्लोकों में भी अनेक मुखों, नेत्रों आदि की और सब लोगों के भयभीत होने की बात आयी है। अतः अर्जुन एक ही बात बार-बार क्यों कह रहे हैं? इसका कारण है कि –
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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