श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च । अर्थ- जो ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दस विश्वेदेव और दो अश्विनी कुमार, उनचास मरुद्गण, सात पितृगण तथा गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सभी चकित होकर आपको देख रहे हैं। व्याख्या- ‘रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मापश्च’- ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, दो अश्वनीकुमार और उनचास मरुद्गण- इन सबके नाम इसी अध्याय के छठे श्लोक की व्याख्या में दिए गए हैं, इसलिए वहाँ देख लेना चाहिए। मन, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु- ये बारह ‘साध्य’ हैं।[1] क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, काम, धुनि, कुरुवान, प्रभवान और रोचमान- ये दस ‘विश्वेदेव’ हैं।[2] कव्यवाह, अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निश्वात्त और बर्हिषत- ये सात ‘पितर’ हैं।[3] ऊष्म अर्थात गरम अन्न खाने के कारण पितरों का नाम ‘ऊष्मपा’ है। ‘गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः’- कश्यप जी की पत्नी मुनि और प्राधा से तथा अरिष्टा से गन्धर्वों की उत्पत्ति हुई है। गन्धर्वलोग राग-रागिनियों की विद्या में बड़े चतुर हैं। ये स्वर्गलोक के गायक हैं। कश्यप जी की पत्नी खसा से यक्षों की उत्पत्ति हुई हैं। देवताओं के विरोधी[4] दैत्यों, दानवों और राक्षसों को असुर कहते हैं। कपिल आदि को सिद्ध कहते हैं। ‘वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे’- उपर्युक्त सभी देवता, पितर, गन्धर्व, यक्ष आदि चकित होकर आपको देख रहे हैं। ये सभी देवता आदि विराट रूप के ही अंग हैं। संबंध- अब अर्जुन आगे के तीन श्लोकों में विश्वरूप के महान विकराल रूप का वर्णन करके उसका परिणाम बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वायुपुराण 66।15-16
- ↑ वायु पुराण 66।31-32
- ↑ शिवपुराण, धर्म. 63।2
- ↑ यहाँ आये ‘असुर’ शब्द में ‘नञ्’ समास है- ‘न सुरा असुराः।’ अतः यहाँ ‘असुर’ शब्द देवताओं के विरोधी का वाचक है।
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