श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः । अर्थ- हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का अंतराल और संपूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत और उग्ररूप को देखकर तीनों लोक व्यथित (व्याकुल) हो रहे हैं। व्याख्या- ‘महात्मन्’- इस संबोधन का तात्पर्य है कि आपके स्वरूप के समान किसी का स्वरूप हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिए आप ‘महात्मा’ अर्थात महान स्वरूप वाले हैं। ‘द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः’- स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जितना अवकाश है, पोलाहट है, वह सब पोलाहट आपसे परिपूर्ण हो रही है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण; पूर्व-उत्तर के बीच में ‘ईशान’, उत्तर-पश्चिम के बीच में ‘वायव्य’, पश्चिम-दक्षिण के बीच में ‘नैर्ऋत्य’ और दक्षिण-पूर्व के बीच में ‘आग्नेय’ तथा ऊपर और नीचे- ये दसों दिशाएं आपसे व्याप्त हैं अर्थात इन सबमें आप ही आप विराजमान हैं। ‘दृष्टाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथिम्’- [उन्नीसवें श्लोक में तथा बीसवें श्लोक के पूर्वार्ध में उग्ररूप का वर्णन करके अब बीसवें श्लोक के उत्तरार्ध से बाईसवें श्लोक तक अर्जुन उग्ररूप के परिणाम का वर्णन करते हैं-] आपके इस अद्भुत, विलक्षण, अलौकिक, आश्चर्यजनक, महान देदीप्यमान और भयंकर उग्ररूप को देखकर स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक में रहने वाले सभी प्राणी व्यथित हो रहे हैं, भयभीत हो रहे हैं। यद्यपि इस श्लोक में स्वर्ग और पृथ्वी की ही बात आयी है (द्यावापृथिव्योः), तथापि अर्जुन द्वारा ‘लोकत्रयम्’ कहने के अनुसार यहाँ पाताल भी ले सकते हैं। कारण कि अर्जुन की दृष्टि भगवान के शरीर के किसी एक देश में जा रही है और वहाँ अर्जुन को जो दिख रहा है, वह दृश्य कभी पाताल का है, कभी मृत्युलोक का है और कभी स्वर्ग का है। इस तरह अर्जुन की दृष्टि के सामने सब दृश्य बिना क्रम के आ रहे हैं।[1] यहाँ पर एक शंका होती है कि अगर विराट रूप को देखकर त्रिलोकी व्यथित हो रही है, तो दिव्यदृष्टि के बिना किसने दी? कारण कि प्राकृत चर्मचक्षुओं से यह विराट रूप नहीं देखा जा सकता, जबकि ‘विश्वमिदं तपन्तम्’[2] और ‘लोकत्रयं प्रव्यथितम्’ पदों से विराट रूप को देखकर त्रिलोकी के संतप्त और व्यथित होने की बात अर्जुन ने कही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्जुन ने स्वर्ग से पाताल तक तथा पाताल से स्वर्ग तक क्रमपूर्वक विश्वरूप को देखा हो, ऐसी बात नहीं है। अर्जुन भगवान की दी हुई दिव्यदृष्टि से स्वर्ग, भूमंडल, पाताल आदि सबको एक साथ देख रहे हैं; और जैसे देख रहे हैं वैसे ही बोल रहे हैं- ‘हे देव! मैं आपकी देह में देवताओं को देख रहा हूँ। प्राणियों के अलग-अलग समुदायों को देख रहा हूँ, कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी को देख रहा हूँ, कैलास पर विराजमान शंकर को देख रहा हूँ’, संपूर्ण ऋषियों को देख रहा हूँ, दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ, (11।15) आदि-आदि। अर्जुन को ऐसा कहने में तो देरी लगी है, पर ऐसा (सबको एक साथ) देखने में देरी नहीं लगी। इसलिए अर्जुन के वचनों में स्वर्ग, मृत्यु, पाताल आदि लोकों का कोई क्रम नहीं है।
- ↑ गीता 11:19
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज