श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
भगवान तो अपने शरीर के एक देश में विश्वरूप दिखा रहे हैं, इसलिए उन्होंने ‘एकस्थम्’ कहा है। संजय सारथि रूप में बैठे हुए भगवान को और उनके शरीर के एक देश में स्थित विश्वरूप को देख रहे हैं, इसलिए संजय ने ‘एकस्थम्’ पद दिया है।[1]। अब प्रश्न यह होता है कि भगवान और संजय की दृष्टि में वह एक जगह कौन सी-थी, जिसमें अर्जुन विश्वरूप देख रहे थे? इसका उत्तर यह है कि भगवान के शरीर में अमुक जगह ही अर्जुन ने विश्वरूप देखा था, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। कारण कि भगवान के शरीर के एक-एक रोमकूप में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं[2] भगवान ने भी यह कहा था कि मेरे शरीर के एक देश में तू चराचरसहित संपूर्ण जगत को देख ले।[3] इसलिए जहाँ अर्जुन की दृष्टि एक बार पड़ी, वहीं उनको संपूर्ण विश्वरूप दिखने लग गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान और संजय के वचनों में ‘एकस्थम्’ पद आने से यह मान लेना चाहिए कि अर्जुन ने भी भगवान के शरीर में एक जगह ही संपूर्ण विश्वरूप को देखा।
- ↑ 1. ‘रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्माण्ड’ (मानस 1।201)
2. केदृग्विधाविगणिताण्डपराणुचर्यावाताध्वरोमविवरस्य च ते महित्वम् ।। (श्रीमद्भा. 10।14।11)
‘आपके एक-एक रोमछिद्र में ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जिस प्रकार झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखाई देते हैं।’ - ↑ गीता 11:7
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