श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
तत्रैकस्थं जगतकृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा । अर्थ- उस समय अर्जुन ने देवों के देव भगवान के शरीर में एक जगह स्थित अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त संपूर्ण जगत को देखा। व्याख्या- ‘तत्रैकस्थं जगतकृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा’- अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त अर्थात ये देवता हैं, ये मनुष्य हैं, ये पशु-पक्षी हैं, यह पृथ्वी है, ये समुद्र हैं, यह आकाश है, ये नक्षत्र है, आदि-आदि विभागों के सहित[1] संपूर्ण चराचर जगत को भगवान के शरीर के भी एक देश में अर्जुन ने भगवान के दिए हुए दिव्यचक्षुओं से प्रत्यक्ष देखा। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण के छोटे से शरीर के भी एक अंश में चर-अचर, स्थावर-जंगमसहित संपूर्ण संसार है। वह संसार भी अनेक ब्रह्माण्डों के रूप में, अनेक देवताओं के लोकों के रूप में, अनेक व्यक्तियों और पदार्थों के रूप में विभक्त और विस्तृत है- इस प्रकार अर्जुन ने स्पष्ट रूप से देखा[2]। ‘अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा’- ‘तदा’ का तात्पर्य है कि जिस समय भगवान ने दिव्यदृष्टि देकर अपना विराट रूप दिखाया, उसी समय उसको अर्जुन ने देखा। ‘अपश्यत्’ का तात्पर्य है कि जैसा रूप भगवान ने दिखाया, वैसा ही अजुन ने देखा। संजय पहले भगवान के जैसे रूप का वर्णन करके आए हैं, वैसा ही रूप अर्जुन ने भी देखा। जैसे मनुष्यलोक से देवलोक बहुत विलक्षण है, ऐसे ही देवलोक से भी भगवान अनन्तगुना विलक्षण हैं; क्योंकि देवलोक आदि सब-के-सब लोक प्राकृत हैं और भगवान प्रकृति से अतीत हैं। इसलिए भगवान ‘देवदेव’ अर्थात देवताओं के भी देवता (मालिक) हैं। संबंध- भगवान के अलौकिक विराट रूप को देखने के बाद अर्जुन की क्या दशा हुई- इसका वर्णन संजय आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संकुचित नहीं, प्रत्युत विस्तार सहित
- ↑ श्रीमद्भागवत में आया है कि एक बार यशोदा जी ने कन्हैया के छोटे से मुख में विश्वरूप देखा। इस पर विचार किया जाए तो अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों में से एक ब्रह्माण्ड में एक भूमंडल है। इस भूमंडल में भारतवर्ष, भारतवर्ष में एक माथुरमंडल, माथुरमंडल में एक ब्रजमंडल, ब्रजमंडल में एक नंदगाँव; नन्दगाँव में एक नन्दभवन और नन्दभवन में एक जगह छोटा-सा कन्हैया खड़ा है। उस कन्हैया को यशोदा मैया छड़ी लेकर धमकाती हैं कि ‘तूने माटी क्यों खायी? दिखा अपना मुख!’ कन्हैया ने अपना मुख खोलकर दिखाया तो उस छोटे से मुख में यशोदा मैया ने संपूर्ण जगत को- नन्दगाँव और नन्दभवन में अपने-आपको भी देखा- ‘सहात्मानम्’ (श्रीमद्भा. 10।8।39)। इसी तरह अर्जुन ने भी भगवान के शरीर के किसी अंश में संपूर्ण जगत को देखा।
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