श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । अर्थ- अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जाएं, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा[1] के प्रकाश के समान शायद ही हो। व्याख्या- ‘दिवि सूर्यसहस्रस्य............तस्य महात्मनः’- जैसे आकाश में हजारों तारे एक साथ उदित होने पर भी उन सबका मिला हुआ प्रकाश एक चंद्रमा के प्रकाश के सदृश नहीं हो सकता, और हजारों चंद्रमाओं का मिला हुआ प्रकाश एक सूर्य के प्रकाश के सदृश नहीं हो सकता, ऐसे ही आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदित होने पर भी उन सबका मिला हुआ प्रकाश विराट भगवान के प्रकाश के सदृश नहीं हो सकता। तात्पर्य यह हुआ कि हजारों सूर्यों का प्रकाश भी विराट भगवान के प्रकाश का उपमेय नहीं हो सकता। इस प्रकार जब हजारों सूर्यों के प्रकाश को उपमेय बनाने में भी दिव्यदृष्टि वाले संजय को संकोच होता है, तब वह प्रकाश विराट रूप भगवान के प्रकाश का उपमान हो ही कैसे सकता है! कारण कि सूर्य का प्रकाश भौतिक है, जबकि विराट भगवान का प्रकाश दिव्य है। भौतिक प्रकाश कितना ही बड़ा क्यों न हो, दिव्य प्रकाश के सामने वह तुच्छ ही है। भौतिक प्रकाश और दिव्य प्रकाश की जाति अलग-अलग होने से उनकी आपस में तुलना नहीं की जा सकती। हाँ, अंगुलि निर्देश की तरह भौतिक प्रकाश से दिव्य प्रकाश का संकेत किया जा सकता है। यहाँ संजय भी हजारों सूर्यों के भौतिक प्रकाश की कल्पना करके विराट रूप भगवान के प्रकाश (तेज) का लक्ष्य कराते हैं। संबंध- पीछे के श्लोकों में विश्वरूप भगवान के दिव्यरूप, अवयव और तेज का वर्णन करके अब संजय अर्जुन द्वारा विश्वरूप का दर्शन करने की बात कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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