श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
जैसे, कोई व्यक्ति दूर बैठे ही अपने मन से चिन्तन करता है कि मैं हरिद्वार में हूँ तथा गंगा जी में स्नान कर रहा हूँ, तो उस समय उसको गंगा जी, पुल, घाट पर खड़े स्त्री-पुरुष आदि दिखने लगते हैं तथा मैं गंगा जी में स्नान कर रहा हूँ- ऐसा भी दिखने लगता है। वास्तव में वहाँ न हरिद्वार है और न गंगा जी हैं; परंतु उसका मन-ही-उन सब रूपों में बना हुआ उसको दिखता है। ऐसे ही एक भगवान अनेक रूपों में, उन रूपों में पहने हुए गहनों के रूप में, अनेक प्रकार के आयुधों के रूप में, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप में, अनेक प्रकार के वस्त्रों के रूप में प्रकट हुए हैं। इसलिए भगवान के विराट रूप में सब कुछ दिव्य है। श्रीमद्भागवत में आता है कि जब ब्रह्मा जी बछड़ों और ग्वाल-बालों को चुराकर ले गए, तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वाल-बाल बन गए। बछड़े और ग्वाल-बाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान स्वयं ही बन गए।[1] संबंध- अब संजय विश्वरूप के प्रकाश का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10।13।19
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