श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
साधक पर भगवान की कृपा का क्रमशः कैसे विस्तार होता है, यह बताने के लिए ही भगवान ने ऐसा किया है; क्योंकि भगवान का ऐसा ही स्वभाव है। भगवान अत्यधिक कृपालु हैं। उन कृपा सागर की कृपा का कभी अंत नहीं आता। भक्तों पर कृपा करने के लिए उनके विचित्र-विचित्र ढंग हैं। जैसे, पहले तो भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया। उपदेश के द्वारा अर्जुन के भीतर के भावों का परिवर्तन कराकर उनको अपनी विभूतियों का ज्ञान कराया। उन विभूतियों को जानने से अर्जुन में एक विलक्षणता आ गयी, जिससे उन्होंने भगवान से कहा कि आपके अमृतमय वचन सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। विभूतियों का वर्णन करके अंत में भगवान ने कहा कि ऐसे[1] अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे एक अंश में पड़े हुए हैं। जिसके एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, उस विराट रूप को देखने के लिए अर्जुन की इच्छा हुई और इसके लिए उन्होंने प्रार्थना की। इस पर भगवान ने अपना विराट रूप दिखाया और उसको देखने के लिए बार-बार आज्ञा दी। परंतु अर्जुन को विराट रूप दिखा नहीं। तब उनको भगवान ने दिव्यचक्षु प्रदान किए। सारांश यह हुआ कि भगवान ने ही विराट रूप देखने की जिज्ञासा प्रकट की। जिज्ञासा प्रकट करके विराट रूप दिखाया। अर्जुन को नहीं दिखा तो दिव्यचक्षु देकर इसकी पूर्ति की। तात्पर्य यह निकला कि भगवान के शरण होने पर शरणागत का सब काम करने की जिम्मेवारी भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। संबंध- दिव्यचक्षु प्राप्त करके अर्जुन ने भगवान का कैसा रूप देखा, यह बात संजय धृतराष्ट्र से आगे के श्लोक में कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तरह-तरह की विभूतियों वाले
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज