श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
न तु मां शक्य से द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । अर्थ- तू अपन इस आँख से अर्थात चर्मचक्षु से मेरे को देख ही नहीं सकता। इसलिए मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वर-संबंधी सामर्थ्य को देख। व्याख्या- ‘न तु मां शक्य से द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा’- तुम्हारे जो चर्मचक्षु हैं, इनकी शक्ति बहुत अल्प और सीमित है। प्राकृत होने के कारण ये चर्मचक्षु केवल प्रकृति के तुच्छ कार्य को ही देख सकते हैं अर्थात प्राकृत मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूपों को, उनके भेदों को तथा धूप-छाया आदि के रूपों को ही देख सकते हैं। परंतु वे मन-बुद्धि-इंद्रियों से अतीत मेरे रूप को नहीं देख सकते। ‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्’- मैं तुझे अतीन्द्रिय, अलौकिक रूप को देखने की सामर्थ्य वाले दिव्यचक्षु देता हूँ अर्थात तेरे इन चर्मचक्षुओं में ही दिव्य शक्ति प्रदान करता हूँ, जिससे तू अतीन्द्रिय, अलौकिक पदार्थ भी देख सके और साथ-साथ उनकी दिव्यता को भी देख सके। यद्यपि दिव्यता देखना नेत्र का विषय नहीं है, प्रत्युत बुद्धि का विषय है, तथापि भगवान कहते हैं मेरे दिये हुए दिव्यचक्षुओं से तू दिव्यता को अर्थात मेरे ईश्वर-संबंधी अलौकिक प्रभाव को भी देख सकेगा। तात्पर्य है कि मेरा विराट रूप देखने के लिए दिव्यचक्षुओं की आवश्यकता है। ‘पश्य’ क्रिया के दो अर्थ होते हैं- बुद्धि (विवेक) से देखना और नेत्रों से देखना। नवें अध्याय के पाँचवें श्लोक में भगवान ने ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ कहकर बुद्धि के द्वारा देखने (जानने) की बात कही थी। अब यहाँ ‘पश्य मे योगमैंश्वरम्’ कहकर नेत्रों के द्वारा देखने की बात कहते हैं। जैसे किसी जगह ‘श्रीमद्भगवद्गीता’- ऐसा लिखा हुआ है। जिनको वर्णमाला का बिलकुल ज्ञान नहीं है, उनको तो इसमें केवल काली-काली लकीरें दिखती हैं और जिनको वर्णमाला का ज्ञान है, उनको इसमें अक्षर दिखते हैं। परंतु जो पढ़ा-लिखा है और जिसको गीता का गहरा मनन है, उसको ‘श्रीमद्भगवद्गीता’- ऐसा लिखा हुआ दिखते ही गीता के अध्यायों की, श्लोकों की, भावों की सब बातें दिखने लग जाती है। ऐसे ही अर्जुन को जब भगवान ने दिव्यचक्षु दिए, तब उनको अलौकिक विश्वरूप तथा उसकी दिव्यता भी दिखने लगी, जो कि साधारण बुद्धि का विषय नहीं है। यह सब सामर्थ्य भगवत्प्रदत्त दिव्यचक्षु की ही थी। |
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