श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । अर्थ- हे अर्जुन! संपूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ। व्याख्या- ‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन’- यहाँ भगवान समस्त विभूतियों का सार बताते हैं कि सबका बीज अर्थात कारण मैं ही हूँ। बीज कहने का तात्पर्य है कि इस संसार का निमित कारण भी मैं हूँ और उपादान कारण भी मैं हूँ अर्थात संसार को बनाने वाला भी मैं हूँ और संसार रूप से बनने वाला भी मैं हूँ। भगवान ने सातवें अध्याय के दसवें श्लोक में अपने को ‘सनातन बीज’, नवें अध्याय के अठारहवें श्लोक में ‘अव्यय बीज’ और यहाँ केवल ‘बीज’ बताया है। इसका तात्पर्य है कि मैं ज्यों-का-त्यों रहता हुआ ही संसार रूप से प्रकट हो जाता हूँ और संसार रूप से प्रकट होने पर भी मैं उसमें ज्यों-का-त्यों व्यापक रहता हूँ। ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्’- संसार में जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, चर-अचर आदि जो कुछ भी देखने में आता है, वह सब मेरे बिना नहीं हो सकता। सब मेरे से ही होते हैं अर्थात सब कुछ मैं-ही-मैं हूँ। इस वास्तविक मूल तत्त्व को जानकर साधक की इंद्रियाँ, मन, बुद्धि जहाँ-कहीं जाएँ अथवा मन-बुद्धि में संसार की जो कुछ बात याद आए, उन सबको भगवान का ही स्वरूप माने। ऐसा मानने से साधक को भगवान का ही चिन्तन होगा, दूसरे का नहीं; क्योंकि तत्त्व से भगवान के सिवाय दूसरा कोई है नहीं।
यहाँ भगवान ने कहा है कि मेरे सिवाय चर-अचर कुछ नहीं है अर्थात सब कुछ मैं ही हूँ और अठारहवें अध्याय के चालीसवें श्लोक में कहा है कि सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के सिवाय कुछ नहीं है अर्थात सब गुणों का ही कार्य है। इस भेद का तात्पर्य है कि यहाँ भक्ति योग का प्रकरण है। इस प्रकरण में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि मैं आपका कहाँ-कहाँ चिन्तन करूँ? इसलिए उत्तर में भगवान ने कहा कि तेरे मन में जिस-जिसका चिन्तन होता है, वह सब मैं ही हूँ। परंतु वहाँ[2] सांख्ययोग का प्रकरण है। सांख्ययोग में प्रकृति और पुरुष- दोनों के विवेक की तथा प्रकृति से संबंध-विच्छेद करने की प्रधानता है। प्रकृति का कार्य होने से मात्र सृष्टि त्रिगुणमयी है।[3] इसलिए वहाँ तीनों गुणों से रहित कोई नहीं है- ऐसा कहा गया है। भगवान ने ‘अहमात्मा गुडाकेश’[4] से लेकर ‘बीजं तदहमर्जुन’[5] तक जो बयासी विभूतियाँ कही हैं, उनका तात्पर्य छोटा-बड़ा, उत्तम-मध्यम-अधम बताने में नहीं है, प्रत्युत यह बताने में है कि कोई भी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि सामने आये तो उसमें भगवान का ही चिन्तन होना चाहिए।[6] कारण कि मूल में अर्जुन का प्रश्न यही था कि आपका चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ और किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ?[7] उस प्रश्न के उत्तर में चिन्तन करने के लिए ही भगवान ने अपनी विभूतियों का संक्षिप्त वर्णन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान ने बीसवें श्लोक से उनतालीसवें श्लोक तक अपनी कुल बयासी विभूतियों का वर्णन किया है; जैसे- बीसवें श्लोक में चार, इक्कीसवें श्लोक में चार, बाईसवें श्लोक में चार, तेईसवें श्लोक में चार, चौबीसवें श्लोक में तीन, पच्चीसवें श्लोक में चार, छब्बीसवें श्लोक में चार, सत्ताईसवें श्लोक में तीन, अट्ठाईसवें श्लोक में चार, उनतीसवें श्लोक में चार, तीसवें श्लोक में चार, इकत्तीसवें श्लोक में चार, बत्तीसवें श्लोक में पाँच, तैंतीसवें श्लोक में चार, चौतीसवें श्लोक में नौ, पैंतीसवें श्लोक में चार, छत्तीसवें श्लोक में पाँच, सैंतीसवें श्लोक में चार, अड़तीसवें श्लोक में चार और उनतालीसवें श्लोक में एक विभूति का वर्णन किया है।
- ↑ गीता 18:40 में
- ↑ इदं गुणयमं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम् ।। (श्रीमद्भा. 11।28।7)
- ↑ गीता 10:20
- ↑ गीता 10:39
- ↑ यच्च किञ्चिज्जगत्सर्व दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अंतर्बहिश्च तत्सवैं व्याप्य नारायणः स्थितः ।। (नारायणोपनिषद्) ‘यह जो कुछ भी जगत देखने या सुनने में आता है, इस सबको बाहर और भीतर से व्याप्त करके भगवान नारायण स्थित है।’
- ↑ गीता 10:17
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