श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् । अर्थ- महर्षियों में भृगु और वाणियों (शब्दों) में एक अक्षर अर्थात प्रणव मैं हूँ। संपूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ। व्याख्या- ‘महर्षीणां भृगुरहम्’- भृगु, अत्रि, मरीचि आदि महर्षियों में भृगु जी बड़े भक्त, ज्ञानी और तेजस्वी हैं। इन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इन तीनों की परीक्षा करके भगवान विष्णु को श्रेष्ठ सिद्ध किया था। भगवान विष्णु भी वक्षःस्थल पर इनके चरणचिह्न को ‘भृगुलता’ नाम से धारण किए रहते हैं। इसलिए भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’- सबसे पहले तीन मात्रा वाला प्रणव प्रकट हुआ। फिर प्रणव से त्रिपदा गायत्री, त्रिपदा गायत्री से वेद और वेदों से शास्त्र, पुराण आदि संपूर्ण वाङ्मय जगत प्रकट हुआ। अतः इन सबका कारण होने से और इन सबमें श्रेष्ठ होने से भगवान ने एक अक्षर- प्रणव को अपनी विभूति बताया है। गीता में और जगह भी इसका वर्णन आता है; जैसे- ‘प्रणवः सर्ववेदेषु’[1]- ‘संपूर्ण वेदों में प्रणव मैं हूँ’; ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।’[2] ‘जो मनुष्य ‘ऊँ’- इस एक अक्षर प्रणव का उच्चारण करके और भगवान का स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है’; ‘तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्’[3] ‘वैदिक लोगों की शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ प्रणव का उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।’ ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’- मंत्रों से जितने यज्ञ किए जाते हैं, उनमें अनेक वस्तु-पदार्थों की, विधियों की आवश्यकता पड़ती है और उनको करने में कुछ न कुछ दोष आ ही जाता है। परंतु जपयज्ञ अर्थात भगवान भगवन्नाम का जप करने में किसी पदार्थ या विधि की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसको करने में दोष आना तो दूर रहा, प्रत्युत सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसको करने में सभी स्वतंत्र हैं। भिन्न-भिन्न संप्रदायों में भगवान के नामों में अंतर तो होता है, पर नामजप से कल्याण होता है- इसको हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, जैन आदि सभी मानते हैं। इसलिए भगवान ने जपयज्ञ को अपनी विभूति बताया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 7:8
- ↑ गीता 8:13
- ↑ गीता 17:24
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