श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अर्थ- हे नींद को जीतने वाले अर्जुन! संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अंत में भी मैं ही हूँ और प्राणियों के अंतःकरण में आत्मरूप से भी मैं ही स्थित हूँ। व्याख्या- [ भगवान का चिन्तन दो तरह से होता है- (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है, उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाए तो मन को वहाँ से हटाकर अपने इष्टदेव के चिन्तन में ही लगा दे; और (2) मन में सांसारिक विशेषता को लेकर चिन्तन हो, तो उस विशेषता को भगवान की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तन के ले ही यहाँ विभूतियों का वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषता को लेकर जहाँ-कहीं वृत्ति जाए, वहाँ भगवान का ही चिन्तन होना चाहिए, उस वस्तु-व्यक्ति का नहीं। इसी के लिए भगवान विभूतियों का वर्णन कर रहे हैं। ] ‘अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’[1]- यहाँ भगवान ने अपनी संपूर्ण विभूतियों का सार कहा है कि संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति-विनाशशील होती है, उसके आरंभ और अंत में जो तत्त्व रहता है वही तत्त्व उसके मध्य में भी रहता है (चाहे दिखे या न दिखे) अर्थात जो वस्तु जिस तत्त्व से उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है, उस वस्तु के आदि, मध्य और अंत में (सब समय में) वही तत्त्व रहता है। जैसे, सोने से बने गहने पहले सोनारूप होते हैं और अंत में[2] सोनारूप ही रहते हैं तथा बीच में भी सोनारूप ही रहते हैं। केवल नाम, आकृति, उपयोग, माप, तौल आदि अलग-अलग होते हैं; और इनके अलग-अलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं। ऐसे ही संपूर्ण प्राणी आदि में भी परमात्मस्वरूप थे और अंत में लीन होने पर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्य में नाम, रूप, आकृति, क्रिया, स्वभाव आदि अलग-अलग होने पर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं- यह बताने के लिए ही यहाँ भगवान ने अपने को संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अंत में कहा है। भगवान ने विभूतियों के इस प्रकरण में आदि, मध्य और अंत में- तीन जगह सार रूप से अपनी विभूतियों का वर्णन किया है। पहले इस बीसवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ‘संपूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अंत मै ही हूँ;’ बीच के बत्तीसवें श्लोक में कहा कि ‘संपूर्ण सर्गों के आदि, मध्य और अंत मैं ही हूँ;’ और अंत के उनतालीसवें श्लोक में कहा कि ‘संपूर्ण प्राणियों का जो बीच है, वह मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘आदिः’ और ‘अंतः’ शब्द का प्रयोग पुल्लिंग में और ‘मध्यम्’ शब्द का प्रयोग नपुंसकलिंग में किया गया है। इसका तात्पर्य है कि आदि में अकेले परमपुरुष भगवान रहते हैं- ‘अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः’ (गीता 10:2), और अन्त में भी अकेले परमपुरुष भगवान रहते हैं- ‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा. 10।3।25)। इसलिए भगवान ने ‘आदि’ और ‘अंत’ शब्द का प्रयोग पुल्लिंग में किया है। परंतु मध्य में अर्थात सृष्टि के समय पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुसंकलिंग तीनों लिंगों वाले व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ, क्रिया, भाव आदि रहते हैं। अतः इन तीनों लिंगों में नपुंसकलिंग ही शेष रहता है अर्थात नपुंसलकलिंग के अंतर्गत ही तीनों लिंग आ जाते हैं। इसलिए भगवान ने यहाँ और आगे बत्तीसवें श्लोक में भी ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग नपुंसकलिंग में किया है।
- ↑ गहनों के सोने में लीन होने पर
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