श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
दूसरी बात, वक्ता की व्यक्तिगत बात पूछी जाए और अपनी अज्ञता तथा अयोग्यतापूर्वक अपने जानने के लिए प्रार्थना की जाए- इन दोनों में फर्क होता है। यहाँ अर्जुन ने विस्तारपूर्वक विभूतियाँ कहने के लिए कहकर भगवान की थाह लेनी चाही, तो भगवान ने कह दिया कि मैं तो संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों की थाह नहीं है। ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन ने अपनी अज्ञता और अयोग्यता प्रकट करते हुए भगवान से अपना अव्यय रूप दिखाने की प्रार्थना की, तो भगवान ने अपने अनन्तरूप देखने के लिए आज्ञा दी और उनको देखने की सामर्थ्य (दिव्य दृष्टि) भी दी! इसलिए साधक को किञ्चिन्मात्र भी अपना आग्रह, अहंकार न रखर अपनी सामर्थ्य, बुद्धि न लगाकर केवल भगवान पर ही सर्वथा निर्भर हो जाना चाहिए; क्योंकि भगवान की निर्भरता से जो चीज मिलती है वह अपार मिलती है। संबंध- विभूतियाँ और योग- इन दोनों में से पहले भगवान बीसवें श्लोक से उनतालीसवें श्लोक तक अपनी बयासी विभूतियों का वर्णन करते हैं। |
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