श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् । अर्थ- हे योगिन! हरदम सांगोपांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? और हे भगवान! किन-किन भावों में आप मेरे द्वारा चिन्तन किए जा सकते हैं अर्थात किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ? व्याख्या- ‘कथं विद्यामहं योगिंस्त्वा सदा परिचिन्तयन्’- सातवें श्लोक में भगवान ने कहा कि जो मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है, वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है। इसलिए अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि हरदम चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? ‘केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया’- आठवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि जो अनन्यचित्त होकर नित्य-निरंतर मेरा स्मरण करता है, उस योगी को मैं सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ। फिर नवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में कहा कि जो अनन्य भक्त निरंतर मेरा चिन्तन करते रहते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हँ। इस प्रकार चिन्तन की महिमा सुनकर अर्जुन कहते हैं कि जिस चिन्तन से मैं आपको तत्त्व से जान जाऊँ, वह चिन्तन मैं कहाँ-कहाँ करूँ? किस वस्तु, व्यक्ति, देश, काल, घटना, परिस्थिति आदि में मैं आपका चिन्तन करूँ? [यहाँ चिन्तन करना साधन है और भगवान को तत्त्व से जानना साध्य है।] यहाँ अर्जुन ने तो पूछा है कि मैं कहाँ-कहाँ, किस-किस वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदि में आपका चिन्तन करूँ, पर भगवान ने आगे उत्तर यह दिया है कि जहाँ-जहाँ भी तू चिन्तन करता है, वहाँ-वहाँ ही तू मेरे को समझ। तात्पर्य यह है कि मैं तो सब वस्तु, व्यक्ति, देश, काल आदि में परिपूर्ण हूँ। इसलिए किसी विशेषता, महत्ता, सुंदरता आदि को लेकर जहाँ-जहाँ तेरा मन जाता है, वहाँ-वहाँ मेरा ही चिन्तन कर अर्थात वहाँ उस विशेषता आदि को मेरी ही समझ। कारण कि संसार की विशेषता को मानने से संसार का चिन्तन होगा, पर मेरी विशेषता को मानने से मेरा ही चिन्तन होगा। इस प्रकार संसार का चिन्तन मेरे चिन्तन में परिणत होना चाहिए। |
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