श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । अर्थ- हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्पते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं। व्याख्या- ‘भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते पुरुषोत्तम’- संपूर्ण प्राणियों को संकल्पमात्र से उत्पन्न करने वाले होने से आप ‘भूतभावन’ हैं; संपूर्ण प्राणियों के और देवताओं के मालिक होने से आप ‘भूतेश’ और ‘देवदेव’ हैं; जड़-चेतन, स्थावर-जंगममात्र जगत का पालन-पोषण करने वाले होने से आप ‘जगत्पति’ हैं; और सम्पूर्ण पुरुषों में उत्तम होने से आप लोक में और वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से कहे गए हैं।[1][2] इस श्लोक में पाँच संबोधन आए हैं। इतने संबोधन गीता भर में दूसरे किसी भी श्लोक में नहीं आये। कारण है कि भगवान की विभूतियों की और भक्तों पर कृपा करने की बात सुनकर अर्जुन में भगवान के प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं और उन भावों में विभोर होकर वे भगवान के लिए एक साथ पाँच संबोधनों का प्रयोग करते हैं।[3] ‘स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वम्’- भगवान अपने-आपको अपने-आपसे ही जानते हैं। अपने-आपको जानने में उन्हें किसी प्राकृत साधन की आवश्यकता नहीं होती। अपने-आपको जानने में उनकी अपनी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती, कोई जिज्ञासा भी नहीं होती, किसी करण (अंतःकरण और बहिःकरण) की आवश्यकता भी नहीं होती। उनमें शरीर-शरीरी का भाव भी नहीं है। वे तो स्वतः-स्वाभाविक अपने-आपसे ही अपने-आपको जानते हैं। उनका यह ज्ञान करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं। इस श्लोक का भाव यह है कि जैसे भगवान अपने-आपसे ही जानते हैं, ऐसे ही भगवान के अंश जीव को भी अपने-आपसे ही अपने-आपको अर्थात अपने स्वरूप को जानना चाहिए। अपने-आपको अपने स्वरूप का जो ज्ञान होता है, वह सर्वथा करण-निरपेक्ष होता है। इसलिए इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से अपने स्वरूप को नहीं जान सकते। भगवान का अंश होने से भगवान की तरह जीव का अपना ज्ञान भी करण-निरपेक्ष है। संबंध- विभूतियों का ज्ञान भगवान में दृढ़ भक्ति कराने वाला है।[4] अतः अब आगे के तीन श्लोकों में अर्जुन भगवान से विभूतियों को विस्तार से कहने के लिए प्रार्थना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 15:18
- ↑ काव्य में भी भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ नाम से कहा गया है-
‘हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतः’ (रघुवंश 3।49) - ↑ यहाँ भूतभावन, भूतेश, देवदेव, जगत्पते और पुरुषोत्तम- इन पाँच संबोधनों को क्रमशः सूर्य, शिव, गणेश, शक्ति और विष्णु- इन ईश्वर कोटि के पाँच देवताओं का वाचक मान सकते हैं। इन संबोधनों का प्रयोग करके अर्जुन भगवान से मानो यह कहते हैं कि ये पाँचों देवता मूलतः आप ही हैं।
- ↑ गीता 10:7
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