श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव । अर्थ- हे केशव! मेरे से आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवान! आपके प्रकट होने को न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं। व्याख्या- ‘सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव’- ‘क’ नाम ब्रह्मा का है, ‘अ’ नाम विष्णु का है, ‘ईश’ नाम शंकर का है और ‘व’ नाम वपु अर्थात स्वरूप का है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जिसके स्वरूप हैं, उसको ‘केशव’ कहते हैं। अर्जुन का यहाँ ‘केशव’ संबोधन देने का तात्पर्य है कि आप ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले हैं। सातवें नवें अध्याय तक मेरे प्रति आप ‘यत्’- जो कुछ कहते आए हैं, वह सब मैं सत्य मानता हूँ; और ‘एतत्’- अभी दसवें अध्याय में आपने जो विभूति तथा योग का वर्णन किया है, वह सब भी मैं सत्य मानता हूँ। तात्पर्य है कि आप ही सबके उत्पादक और संचालक हैं। आपसे भिन्न की भी ऐसा नहीं हो सकता। आप ही सर्वोपरि हैं। इस प्रकार सबके मूल में आप ही हैं- इसमें मेरे को कोई संदेह नहीं है। भक्तिमार्ग में विश्वास की मुख्यता है। भगवान ने पहले श्लोक में अर्जुन को परम वचन सुनने के लिए आज्ञा दी थी, उसी परम वचन को अर्जुन यहाँ ‘ऋतम्’ अर्थात सत्य कहकर उस पर विश्वास प्रकट करते हैं। ‘न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः’- आपने[1] कहा है कि मेरे और तेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता। इसी प्रकार आपने[2] कहा है कि मेरे प्रकट होने को देवता और महर्षि भी नहीं जानते। अपने प्रकट होने के विषय में आपने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। कारण कि मनुष्यों की अपेक्षा देवताओं में जो दिव्यता है, वह दिव्यता भगवत्वस्वरूप को जानने में कुछ भी काम नहीं आती। वह दिव्यता प्राकृत- उत्पन्न और नष्ट होने वाली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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