श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘इति मत्वा भावसमन्विताः’- भगवान से ही सब संसार की उत्पत्ति होती है और संसार को सत्ता-स्फूर्ति भगवान से ही मिलती है अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण रूप से सब कुछ भगवान ही हैं- ऐसा जो दृढ़ता से मान लेते हैं, वे ‘भगवान ही सर्वोपरि हैं; भगवान के समान कोई हुआ नहीं है, है नहीं, होगा नहीं तथा होना संभव भी नहीं’- ऐसे सर्वोच्च भाव से युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार जब उनकी महत्त्वबुद्धि केवल भगवान में हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण, श्रद्धा, विश्वास, प्रेम आदि सब भगवान में ही हो जाते हैं। भगवान ही आश्रय लेने से उनमें समता, निर्विकारता, निःशोकता, निश्चिन्तता, निर्भयता आदि स्वतः-स्वाभाविक ही आ जाते हैं। कारण कि जहाँ देव (परमात्मा) होते हैं, वहाँ दैवी-संपत्ति स्वाभाविक ही आ जाती है। ‘बुधाः’- भगवान के सिवाय अन्य की सत्ता ही न मानना, भगवान को ही सबके मूल में मानना, भगवान का ही आश्रय लेकर उनमें ही श्रद्धा-प्रेम करना- यही उनकी बुद्धिमानी है। इसलिए उनको बुद्धिमान कहा गया है। इसी बात को आगे पंद्रहवें अध्याय में कहा है कि जो मेरे को क्षर (संसारमात्र) से अतीत और अक्षर (जीवात्मा) से उत्तम जानता है, वह सर्ववित है और सर्वभाव से मेरा ही भजन करता है।[1] ‘माम् भजन्ते’- भगवान के नाम का जप-कीर्तन करना, भगवान के रूप का चिन्तन-ध्यान करना, भगवान की कथा सुनना, भगवत्संबंधी ग्रंथों- (गीता, रामायण, भागवत आदि) का पठन-पाठन करना- ये सब-के-सब भजन हैं। परंतु असली भजन तो वह है, जिसमें हृदय भगवान की तरफ ही खिंच जाता है, केवल भगवान ही प्यारे लगते हैं, भगवान की विस्मृति चुभती है, बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान में तल्लीन होना ही असली भजन है। सबके मूल में परमात्मा है और परमात्मा से ही वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, घटना आदि सबको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है- ऐसा ज्ञान होना परमात्मप्राप्ति चाहने वाले सभी साधकों के लिए बहुत आवश्यक है। कारण कि जब सबके मूल में परमात्मा ही है, तब साधक का लक्ष्य भी परमात्मा की तरफ ही होना चाहिए। उस परमात्मा की तरफ लक्ष्य कराने में ही संपूर्ण विभूतियों और योग के ज्ञान का तात्पर्य है। यही बात गीता में जगह-जगह बतायी गयी है; जैसे- जिससे संपूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति होती है और जिससे संपूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्तव्य कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए;[2] जो संपूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान है और जो सब प्राणियों को प्रेरणा देता है, उस परमात्मा की सर्वभाव से शरण जाना चाहिए;[3] इत्यादि। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- ये साधन तो अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, पर उपर्युक्त ज्ञान सभी साधकों के लिए बहुत ही आवश्यक है। संबंध- अब आगे के श्लोक में उन भक्तों का भजन किस रीति से होता है- यह बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 15:18-19
- ↑ गीता 18:46
- ↑ गीता 18:61-62
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