श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
साधक संसार को कैसे देखे? ऐसे देखे की संसार में जो कुछ क्रिया, पदार्थ घटना आदि है, वह सब भगवान का रूप है। चाहे उत्पत्ति हो, चाहे प्रलय हो; चाहे अनुकूलता हो, चाहे प्रतिकूलता हो; चाहे अमृत हो, चाहे मृत्यु हो, चाहे स्वर्ग हो, चाहे नरक हो; यह सब भगवान की लीला है। भगवान की लीला में बालकाण्ड भी है, अयोध्याकांड भी है, अरण्यकांड भी है और लंकाकांड भी है। पुरियों में देखा जाए तो अयोध्यापुरी में भगवान का प्राकट्य है; राजा, रानी और प्रजा का वात्सल्यभाव है। जनकपुरी में राम जी के प्रति राजा जनक, महारानी सुनयना और प्रजा के विलक्षण-विलक्षण भाव हैं। वे राम जी को दामादरूप से खिलाते हैं, खेलाते हैं, विनोद करते हैं। वन में (अरण्यकांड में) भक्तों का मिलना भी है और राक्षसों का मिलना भी। लंकापुरी में युद्ध होता है, मार-काट होती है, खून की नदियाँ बहती हैं। इस तरह अलग-अलग पुरियों में, अलग-अलग कांडों में भगवान की तरह-तरह की लीलाएँ होती हैं। परंतु तरह-तरह की लीलाएँ होते हुए भी रामायण एक है और ये सभी लीलाएँ एक ही रामायण के अंग हैं तथा इन अंगों से परायण सांगोपांग होती है। ऐसे ही संसार में प्राणियों के तरह-तरह के भाव हैं, क्रियाएँ हैं। कहीं पर कोई हँस रहा है तो कही पर कोई रो रहा है, कहीं पर विद्वद्गोष्ठी हो रही है तो कहीं पर आपस में लड़ाई हो रही है, कोई जन्म ले रहा है तो कोई मर रहा है, आदि-आदि जो विविध भाँति की चेष्टाएँ हो रही हैं, वे सब भगवान की लीलाएँ हैं। लीलाएँ करने वाले ये सब भगवान के रूप हैं। इस प्रकार भक्त की दृष्टि हरदम भगवान पर ही रहनी चाहिए; क्योंकि इन सबके मूल में एक परमात्मतत्त्व ही है। |
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