श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘तुष्टिः’- आवश्यकता ज्यादा रहने पर भी कम मिले तो उसमें संतोष करना तथा और मिले- ऐसी इच्छा का न रहना ‘तुष्टि’ है। तात्पर्य है कि मिले अथवा न मिले, कम मिले अथवा ज्यादा मिले आदि हर हालत में प्रसन्न रहना ‘तुष्टि’ है। ‘तपः’- अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो कुछ कष्ट आ जाए, प्रतिकूल परिस्थिति आ जाए, उन सबको प्रसन्नतापूर्वक सहने का नाम ‘तप’ है। एकादशी के व्रत आदि करने का नाम भी तप है। ‘दानम्’- प्रत्युपकार और फल की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाई का हिस्सा सत्यपात्र को देने का नाम ‘दान’ है।[1] ‘यशोऽयशः’- मनुष्य के अच्छे आचरणों, भावों और गुणों को लेकर संसार में जो नाम की प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि होते हैं, उनका नाम ‘यश’ है। मनुष्य के बुरे आचरणों, भावों और गुणों को लेकर संसार में जो नाम की निंदा होती है, उसको ‘अयश’ (अपयश) कहते हैं। ‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः’- प्राणियों के ये पृथक-पृथक और अनेक तरह के भाव मेरे से ही होते हैं अर्थात उन सबको सत्ता, स्फूर्ति, शक्ति, आधार और प्रकाश मुझ लोक महेश्वर से ही मिलता है। तात्पर्य है कि तत्त्व से सबके मूल में मैं ही हूँ। यहाँ ‘मत्तः’ पद से भगवान का योग, सामर्थ्य, प्रभाव और ‘पृथग्विधाः’ पद से अनेक प्रकार की अलग-अलग विभूतियाँ जाननी चाहिए। संसार में जो कुछ विहित तथा निषिद्ध हो रहा है; शुभ तथा अशुभ हो रहा है और संसार में जितने सद्भाव तथा दुर्भाव हैं, वह सब-की-सब भगवान की लीला है- इस प्रकार भक्त भगवान को तत्त्व से समझ लेता है तो उसका भगवान में अविकम्प (अविचल) योग हो जाता है।[2] यहाँ प्राणियों के जो बीस भाव बताये गये हैं, उनमें बारह भाव तो एक-एक (अकेले) हैं और वे सभी अंतःकरण में उत्पन्न होने वाले हैं और भय के साथ आया हुआ अभय भी अंतःकरण में पैदा होने वाले भाव हैं तथा बचे हुए सात भाव परस्पर विरोधी हैं। उनमें से भव (उत्पत्ति), अभाव, यश और अयश- ये चार तो प्राणियों के पूर्वकृत कर्मों के फल हैं और सुख, दुःख तथा भय- ये तीन मूर्खता के फल है। इस मूर्खता को मनुष्य मिटा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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