चतुर्थ अध्याय
सम्बन्ध- द्रव्ययज्ञादि चार प्रकार के यज्ञों का संक्षेप में वर्णन करके अब दो श्लोकों में प्राणायामरूप यज्ञों का वर्णन करते हुए सब प्रकार के यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा करते हैं-
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथा परे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ।।29।।
अपरे नियताहार: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: ।।30।।
दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राण वायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष और प्राण अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं ।।29-30।।
प्रश्न- यहाँ ‘जुह्वति’ क्रिया के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- प्राणायाम के साधन को यज्ञ का रूप देने के लिये ‘जुह्वति’ क्रिया का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि प्राणायामरूप साधन करना भी यज्ञ ही है। अतएव ममता, आसक्ति और फलेच्छा के त्यागपूर्वक, परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से प्राणायाम करना भी यज्ञार्थ कर्म होने से मनुष्य को कर्मबन्धन से मुक्त करने वाला और परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है।
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