श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
‘बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः।’ [1] शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध जो इन्द्रियों के बाहरी विषय हैं और संकल्प- विकल्पादि जो अन्तःकरण के विषय हैं, उनके त्याग से-उनकी उपेक्षा करने पर अर्थात विषयों का चिन्तन न करने पर प्राणों की गति का जो स्वतः ही अवरोध होता है, उसका नाम चतुर्थ प्राणायाम है। पूर्वसूत्र में बतलाये हुए प्राणायामों में प्राणों के निरोध से मन का संयम है और यहाँ मन और इन्द्रियों के संयम से प्राणों का संयम है। यहाँ प्राणों के रुकने का कोई निर्दिष्ट स्थान नहीं है- जहाँ कहीं भी रुक सकते हैं तथा काल और संख्या का भी विधान नहीं है। ‘स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।’[2] अपने-अपने विषयों के संयोग से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के-से रूप में अवस्थित हो जाना प्रत्याहार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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