श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- यहाँ वास्तव में ‘योगयज्ञ’ किस कर्म का वाचक है, यह तो भगवान ही जानते हैं; क्योंकि इसके विशेष लक्षण यहाँ नहीं बतलाये गये हैं। किंतु अनुमान से यह प्रतीत होता है कि चित्तवृत्ति- निरोधरूप जो अष्टांगयोग है सम्भवतः उसी का वाचक यहाँ ‘योगयज्ञ’ शब्द है। अतएव यहाँ ‘योगयज्ञाः’ पद के प्रयोग का यह भाव समझना चाहिये कि बहुत-से साधक परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से आसक्ति, फलेच्छा और ममता का त्याग करके इस अष्टांगयोगरूप यज्ञ का ही अनुष्ठान किया करते हैं। उनका वह योग साधाना रूप कर्म भी यज्ञार्थ कर्म के अन्तर्गत है, अतएव उन लोगों के भी समस्त कर्म विलीन होकर उनको सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। प्रश्न- उपर्युक्त अष्टांगयोग के आठ अंग कौन-कौन से हैं? उत्तर- पातंजल योगदर्शन में इनका वर्णन इस प्रकार आता है- ‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा-ध्यानसमाधतोऽष्टावंगानि।’[1] यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- ये योग के आठ अंग हैं। इनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार- ये पाँच बहिरंग और धारणा, ध्यान, समाधि- ये तीन अन्तरंग साधन हैं। ‘त्रयमेकत्र संयमः।’[2] किसी भी प्राणी को किसी प्रकार किंचिन्मात्र कभी कष्ट न देना (अहिंसा); हित की भावना से कपट रहित प्रिय शब्दों में यथार्थ भाषण (सत्य); किसी प्रकार से भी किसी के स्वत्व-हक को न चुराना और न छीनना (अस्तेय); मन, वाणी और शरीर से सम्पूर्ण अवस्थाओं में सदा-सर्वदा सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना (ब्रह्मचर्य); और शरीर निर्वाह के अतिरिक्त भोग्य सामग्री का कभी संग्रह न करना (अपरिग्रह)- इन पाँचों का नाम यम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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